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− | + | '''रचनाकाल: मई’१९३५''' | |
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13:27, 10 जून 2010 के समय का अवतरण
सृष्टि
मिट्टी का गहरा अंधकार
डूबा है उसमें एक बीज,--
वह खो न गया, मिट्टी न बना,
कोदों, सरसों से क्षुद्र चीज!
उस छोटे उर में छिपे हुए
हैं डाल-पात औ’ स्कन्ध-मूल,
गहरी हरीतिमा की संसृति,
बहु रूप-रंग, फल और फूल!
वह है मुट्ठी में बंद किए
वट के पादप का महाकार,
संसार एक! आश्चर्य एक!
वह एक बूँद, सागर अपार!
बन्दी उसमें जीवन-अंकुर
जो तोड़ निखिल जग के बन्धन,--
पाने को है निज सत्व,--मुक्ति!
जड़ निद्रा से जग कर चेतन!
आः, भेद न सका सृजन-रहस्य
कोई भी! वह जो क्षुद्र पोत,
उसमें अनन्त का है निवास,
वह जग-जीवन से ओत-प्रोत!
मिट्टी का गहरा अन्धकार,
सोया है उसमें एक बीज,--
उसका प्रकाश उसके भीतर,
वह अमर पुत्र, वह तुच्छ चीज?
रचनाकाल: मई’१९३५