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संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति! | संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति! | ||
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+ | यदि बने रह सको तुम मानव! | ||
'''रचनाकाल: अप्रैल’१९३५''' | '''रचनाकाल: अप्रैल’१९३५''' | ||
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13:25, 10 जून 2010 के समय का अवतरण
सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,
निर्मित सबकी तिल-सुषमा से
तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!
यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,
मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
छाया-प्रकाश के रूप-रंग!
धावित कृश नील शिराओं में
मदिरा से मादक रुधिर-धार,
आँखें हैं दो लावण्य-लोक,
स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!
पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,
दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,
पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,
कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!
यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,
नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!
अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,
आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!
आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,
उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,
विश्वास, असद् सद् का विवेक,
दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!
मानसी भूतियाँ ये अमन्द,
सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
मानव का मानव पर प्रत्यय,
परिचय, मानवता का विकास,
विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३५