{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रमा द्विवेदी}}{{KKCatKavita}}<poem>प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है।उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥
{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रमा द्विवेदी}}संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥
प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है।<br>उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥<br><br>संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।<br>जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥<br><br>मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।<br>इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥<br><br> इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।<br>चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥<br><br/poem>