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::'''[२]'''
 
::'''[२]'''
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तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
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नीले वितान के तले दीप बहु जागे।
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टकटकी लगाये नयन सुरों के थे वे,
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परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे।
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उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रह कर,
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करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह मह कर।
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वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
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प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी।
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"हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना;"
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सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।
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"हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?
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मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?
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पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा,
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रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा?
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तनु तड़प तड़प कर तप्त तात ने त्यागा,
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क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?
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हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
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निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा।
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अब कौन अभीप्सित और आर्य वह किसका?
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संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका।
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मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,
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हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?"
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प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा;
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रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा!
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"उसके आशय की थाह मिलेगी किसको,
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जन कर जननी ही जान न पाई जिसको?"
  
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"यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।"
 +
चौंके सब सुन कर अटल केकयी-स्वर को।
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सबने रानी की ओर अचानक देखा,
 +
वैधव्य-तुषारावृता यथा विधु-लेखा।
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बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,
 +
वह सिंही अब थी हहा! गोमुखी गंगा--
 +
"हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,
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सब सुन लें तुमने स्वयं अभी यह माना।
 +
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,
 +
अपराधिन मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।
 +
दुर्बलता का ही चिन्ह विशेष शपथ है,
 +
पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है?
 +
यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ,
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तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ।
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ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
 +
पाओ यदि उसमें सार उसे सब चुन लो।
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करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?
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राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?"
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थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती,
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रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।
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उल्का-सी रानी दिशा दीप्ति करती थी;
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सब में भय-विस्मय और खेद भरती थी।
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:"क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी,
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:मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।
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:जल पंजर-गत अब अरे अधीर, अभागे,
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:वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।
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:पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में?
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:क्या शेष बचा था कुछ न और इस जन में?
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:कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य-मात्र, क्या तेरा?
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:पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
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:थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
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:जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चूके?
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:छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,
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:रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?
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:कहते आते थे अभी यही नर-देही,
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:’माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही।’
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:अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता,--
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:’हैं पुत्र पुत्र ही, रहे कुमाता माता।’
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:बस मैंने इसका वाह्य मात्र ही देखा,
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:दृढ़ हृदय न देखा, मृदुल गात्र ही देखा।
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:परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा,
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:इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा!
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युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी--
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’रघुकुल में भी थी एक अभागी रानी।’
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निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा-
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’धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।’-"
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"सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
 +
जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।"
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पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई--
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"सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।"
 +
 
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"हा! लाल? उसे भी आज गमाया मैंने,
 +
विकराल कुयश ही यहाँ कमाया मैंने।
 +
निज स्वर्ग उसी पर वार दिया था मैंने,
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हर तुम तक से अधिकार लिया था मैंने।
 +
पर वही आज यह दीन हुआ रोता है,
 +
शंकित सब से घृत हरिण-तुल्य होता है।
 +
श्रीखण्ड आज अंगार-चण्ड है मेरा,
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फिर इससे बढ़ कर कौन दण्ड है मेरा?
 +
 
 +
पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में,
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जन क्या क्या करते नहीं स्वप्न में, मद में?
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हा! दण्ड कौन, क्या उसे डरूँगी अब भी?
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मेरा विचार कुछ दयापूर्ण हो तब भी।
 +
हा दया! हन्त वह घृणा! अहह वह करुणा!
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वैतरणी-सी हैं आज जान्हवी-वरुणा!!
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सह सकती हूँ चिरनरक, सुनें सुविचारी,
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पर मुझे स्वर्ग की दया दण्ड से भारी।
 +
लेकर अपना यह कुलिश-कठोर कलेजा,
 +
मैंने इसके ही लिए तुम्हें वन भेजा।
 +
घर चलो इसी के लिए, न रूठो अब यों,
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कुछ और कहूँ तो उसे सुनेंगे सब क्यों?
 +
मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,
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मेरे दुगने प्रिय रहो न मुझसे न्यारे।
 +
मैं इसे न जानूँ, किन्तु जानते हो तुम,
 +
अपने से पहले इसे मानते हो तुम।
 +
तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,
 +
यदि वह सब पर यों प्रकट हुआ है वैसा,
 +
तो पाप-दोष भी पुण्य-तोष है मेरा,
 +
मैं रहूँ पंकिला, पद्म-कोष है मेरा,
 +
आगत ज्ञानीजन उच्च भाल ले लेकर,
 +
समझावें तुमको अतुल युक्तियाँ देकर।
 +
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15:11, 29 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

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[२]
तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
नीले वितान के तले दीप बहु जागे।
टकटकी लगाये नयन सुरों के थे वे,
परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे।
उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रह कर,
करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह मह कर।
वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी।
"हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना;"
सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।
"हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?
मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?
पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा,
रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा?
तनु तड़प तड़प कर तप्त तात ने त्यागा,
क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?
हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा।
अब कौन अभीप्सित और आर्य वह किसका?
संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका।
मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,
हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?"
प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा;
रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा!
"उसके आशय की थाह मिलेगी किसको,
जन कर जननी ही जान न पाई जिसको?"

"यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।"
चौंके सब सुन कर अटल केकयी-स्वर को।
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
वैधव्य-तुषारावृता यथा विधु-लेखा।
बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,
वह सिंही अब थी हहा! गोमुखी गंगा--
"हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुन लें तुमने स्वयं अभी यह माना।
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,
अपराधिन मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।
दुर्बलता का ही चिन्ह विशेष शपथ है,
पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है?
यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमें सार उसे सब चुन लो।
करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?"
थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती,
रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।
उल्का-सी रानी दिशा दीप्ति करती थी;
सब में भय-विस्मय और खेद भरती थी।
"क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।
जल पंजर-गत अब अरे अधीर, अभागे,
वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।
पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में?
क्या शेष बचा था कुछ न और इस जन में?
कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य-मात्र, क्या तेरा?
पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चूके?
छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,
रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?
कहते आते थे अभी यही नर-देही,
’माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही।’
अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता,--
’हैं पुत्र पुत्र ही, रहे कुमाता माता।’
बस मैंने इसका वाह्य मात्र ही देखा,
दृढ़ हृदय न देखा, मृदुल गात्र ही देखा।
परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा,
इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा!
युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी--
’रघुकुल में भी थी एक अभागी रानी।’
निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा-
’धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।’-"
"सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।"
पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई--
"सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।"

"हा! लाल? उसे भी आज गमाया मैंने,
विकराल कुयश ही यहाँ कमाया मैंने।
निज स्वर्ग उसी पर वार दिया था मैंने,
हर तुम तक से अधिकार लिया था मैंने।
पर वही आज यह दीन हुआ रोता है,
शंकित सब से घृत हरिण-तुल्य होता है।
श्रीखण्ड आज अंगार-चण्ड है मेरा,
फिर इससे बढ़ कर कौन दण्ड है मेरा?

पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में,
जन क्या क्या करते नहीं स्वप्न में, मद में?
हा! दण्ड कौन, क्या उसे डरूँगी अब भी?
मेरा विचार कुछ दयापूर्ण हो तब भी।
हा दया! हन्त वह घृणा! अहह वह करुणा!
वैतरणी-सी हैं आज जान्हवी-वरुणा!!
सह सकती हूँ चिरनरक, सुनें सुविचारी,
पर मुझे स्वर्ग की दया दण्ड से भारी।
लेकर अपना यह कुलिश-कठोर कलेजा,
मैंने इसके ही लिए तुम्हें वन भेजा।
घर चलो इसी के लिए, न रूठो अब यों,
कुछ और कहूँ तो उसे सुनेंगे सब क्यों?
मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,
मेरे दुगने प्रिय रहो न मुझसे न्यारे।
मैं इसे न जानूँ, किन्तु जानते हो तुम,
अपने से पहले इसे मानते हो तुम।
तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,
यदि वह सब पर यों प्रकट हुआ है वैसा,
तो पाप-दोष भी पुण्य-तोष है मेरा,
मैं रहूँ पंकिला, पद्म-कोष है मेरा,
आगत ज्ञानीजन उच्च भाल ले लेकर,
समझावें तुमको अतुल युक्तियाँ देकर।