Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
|||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=कुँअर बेचैन | |
− | + | }} | |
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे | ||
+ | राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे | ||
− | + | उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से | |
+ | मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे | ||
− | + | बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा | |
− | + | धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे | |
− | + | छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई | |
− | मैंने | + | इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे |
− | + | दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं | |
− | + | अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे | |
− | + | होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन | |
− | इक | + | याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे |
− | + | वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है | |
− | + | मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है | + | |
− | मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे | + |
20:24, 30 जून 2013 के समय का अवतरण
उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे
बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे
दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे
होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे
वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे