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"सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 4" के अवतरणों में अंतर

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“सुमुखि, सुन्दरी मात्र तुझे मैं समझ रहा था,  
 
“सुमुखि, सुन्दरी मात्र तुझे मैं समझ रहा था,  

23:14, 20 जनवरी 2008 के समय का अवतरण

“सुमुखि, सुन्दरी मात्र तुझे मैं समझ रहा था,

पर तू इतनी कुशल ! बहन ने ठीक कहा था।

इस रचना पर भला तुझे क्या पुरस्कार दूँ ?

तुझ पर निज सर्वस्व बोल मैं अभी वार दूँ !”

बोली कृष्णा मुख नत किए – “क्षमा कीजिए बस मुझे,

कुछ, पुरस्कार के काम में, नहीं दिखता रस मुझे।”


“रचना के ही लिए हुआ करती है रचना।”

कृष्णा चुप हो गई कठिन था तब भी बचना।

बोला खल – “पर दिखा चुका जो ललित कला यह,

क्या चूमा भी जाय कुशलता-कर न भला वह ?

सैरन्ध्री कहूँ विशेष क्या तू, ही मेरी सम्पदा,

मेरे वश में है, राज्य यह, मैं तेरे वश में सदा।”


हे अनुपम आनन्द-मूर्ति, कृशतनु, सुकुमारी,

बलिहारी यह रुचिर रूप की राशि तुम्हारी !

क्या तुम हो इस योग्य, रहो जो बनकर चेरी,

सुध बुध जाती रही देख कर तुझको मेरी।

इन दृग्बाणों से बिद्ध यह मन मेरा जब से हुआ,

है खान-पान-शयनादि सब विष-समान तब से हुआ।


अब हे रमणीरत्न, दया कर इधर निहारो,

मेरी ऐसी प्रीति नहीं कि प्रतीति न धारो।

मैं तो हूँ अनुरक्त, तनिक तुम भी अनुरागो।

रानी होकर रहो, वेश दासी का त्यागो।

होती है यद्यपि खान में किन्तु नहीं रहती पड़ी,

मणि, राज-मुकुट में ही प्रिये, जाती है आखिर जड़ी।”


“अहो वीर बलवान, विषम विष की धारा-से,

बोलो ऐसी बात न तुम मुझ पर-दारा से।

तुम जैसे ही बली कहीं अनरीति करेंगे,

तो क्या दुर्बल जीव धर्म का ध्यान धरेंगे ?

नर होकर इन्द्रिय-वश अहो ! करते कितने पाप हैं,

निज अहित-हेतु अविवेकि जन होते अपने आप हैं।


राजोचित सुख-भोग तुम्हीं को हों सुख-दाता,

कर्मों के अनुसार जीव जग में फल पाता।

रानी ही यदि किया चाहता मुझको धाता,

तो दासी किसलिए प्रथम ही मुझे बनाता।

निज धर्म-सहित रहना भला, सेवक बन कर भी सदा,

यदि मिले पाप से राज्य भी, त्याज्य समझिए सर्वदा।


इस कारण हे वीर, न तुम यों मुझे निहारो,

फणि-मणि पर निज कर न पसारो, मन को मारो।

प्रेम करूँ मैं बन्धु, मुझे तुम बहन विचारो, -

पाप-गर्त्त से बचो, पुण्य-पथ पर पद धारो।

अपने इस अनुचित कर्म के लिए करो अनुताप तुम,

मत लो मस्तक पर वज्र-सम सती-धर्म का शाप तुम।”


कृष्णा ने इस भाँति उसे यद्यपि समझाया,

किन्तु एक भी वचन न उसके मन को भाया।

मद-मत्तों को यथा-योग्य उपदेश सुनाना,

है ऊपर में यथा वृथा पानी बरसाना।

कर सकते हैं जो जन नहीं मनोदमन अपना कभी,

उनके समक्ष शिक्षा कथन निष्फल होता है सभी।


“रहने दो यह ज्ञान, ध्यान, ग्रन्थों की बातें !

फिर फिर आती नहीं सुयौवन की दिन-रातें।

करिए सुख से वही काम, जो हो मनमाना,

क्या होगा मरणोपरान्त, किसने यह जाना ?

जो भावों की आशा किए वर्तमान सुख छोड़ते,

वे मानो अपने आप ही निज-हित से मुँह मोड़ते।”


कह कर ऐसे वचन वेग से बिना विचारे,

आतुर हो अत्यन्त, देह की दशा बिसारे।

सहसा उसने पकड़ लिया कर पांचाली का,

मानो किसलय-गुच्छ नाग ने नत डाली का।

कीचक की ऐसी नीचता देख सती क्षोभित हुई,

कर चक्षु चपल-गति से चकित शम्पा-सी शोभित हुई।


जो सकम्प तनु-यष्टि झूलती रज्जु सदृश थी,

शिथिल हुई निर्जीव दीख पड़ती अति कृश थी।

आहा ! अब हो उठी अचानक वह हुंकारित,

ताब-पेंच खा बनी कालफणिनी फुंकारित।

भ्रम न था रज्जु में सर्प की उपमा पूरी घट गई,

कीचक के नीचे की धरा मानो सहसा हट गई।


“अरे नराधम, तुझे नहीं लज्जा आती है ?

निश्चय तेरी मृत्यु मुण्ड पर मंडराती है।

मैं अबला हूँ किन्तु न अत्याचार सहूँगी,

तुझे दानव के लिए चण्डिका भी बनी रहूँगी।

मत समझ मुझे तू शशि-सुधा खल, निज कल्मष राहु की,

मैं सिद्ध करूँगी पाशता अपने वामा-बाहु की।


होता है यदि पुलक हमारी गल-बाहों में, -

तो कालानल नित्य निकलता है आहों में !”

यों कह कर झट हाथ छुड़ाने को उस खल से,

तत्क्षण उसने दिया एक झटका अति बल से।

तब मानों सहसा मुँह के बल वहाँ मदोन्मत्त वह गिर पड़ा,

मानों झंझा के वेग से पतित हुआ पादप बड़ा।


तब विराट की न्याय-सभा की नींव हिलाने,

उस कामी को कुटिल-कर्म का दण्ड दिलाने,

कच-कुच और नितम्ब-भार से खेदित होती,

गई किसी विध शीघ्र द्रौपदी रोती रोती।

पीछे से उसको मारने उठकर कीचक भी चला,

उस अबला द्वारा भूमि पर गिरना उसको खला।


कृष्णा पर कर कोप शीघ्र झपटा वह ऐसे –

थकी मृगी की ओर तेंदुआ लपके जैसे।

भरी सभा में लात उसे उस खल ने मारी,

छिन्न लता-सी गिरी भूमि पर वह बेचारी।

पर सँभला कीचक भी नहीं निज बल-वेग विशेष से,

फिर मुँह की खाकर गिर पड़ा दुगुने विगलित वेष से।