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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव |संग्रह=अन्न हैं मेरे शब्द / एकांत श्रीवास्तव }}{{KKCatKavita}}<Poem>आज सिरा रहे हैं लोग<br />दोने में धरकर अपने-अपने दिये<br />अपने-अपने फूल<br />और मन्‍नतों की पीली रोशनी में<br />चमक रही है नदी<br /><br />टिमटिमाते दीपों की टेढ़ी-मेढ़ी पॉंतें<br />सॉंवली स्‍लेट पर<br />जैसे ढाई आखर हों कबीर के<br />
टिमटिमाते दीपों की टेढ़ी-मेढ़ी पाँतेंसाँवली स्‍लेट परजैसे ढाई आखर हों कबीर के देख रहे हैं कॉंस काँस के फूल<br />खेतों की मेड़ों पर खड़े<br />दूर से यह उत्‍सव<br /><br />चमक रहा है गॉंव<br />गाँवजैसे नागकेसर धान से<br />भरा हुआ हो कॉंस काँस का कटोरा<br /><br />आज भूले रहें थोड़ी देर हम<br />पॉंवों पाँवों में गड़ा हुआ कॉंटा<br />काँटाऔर झरते रहें चॉंदनी चाँदनी के फूल<br /><br />आज बहता रहे<br />हमारी नींद में<br />सपनों-सा मीठा यह जल.<br />जल।<br /poem>--[[सदस्य:Pradeep Jilwane|Pradeep Jilwane]] 09:46, 24 अप्रैल 2010 (UTC)
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