"शिशिर-बाला / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
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अर्धनग्न तनु, मुख पर झीना किसलय-अवगुंठन खींचे | अर्धनग्न तनु, मुख पर झीना किसलय-अवगुंठन खींचे | ||
बैठी उन्मन प्रेम-व्यथायें भर कंपित स्वर-लहरी में, | बैठी उन्मन प्रेम-व्यथायें भर कंपित स्वर-लहरी में, | ||
− | चिर- | + | चिर-एकाकिनि! अयि मरुवासिनि! इस पीपल-तरु के नीचे |
कौन वसंती स्वर अलापती तुम निर्जन दोपहरी में? | कौन वसंती स्वर अलापती तुम निर्जन दोपहरी में? | ||
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धूल भरी पलकें मलती, अलकें कपोल से खिसकाती, | धूल भरी पलकें मलती, अलकें कपोल से खिसकाती, | ||
बारबार कटि-वसन खींचती, विस्मित खोयी-सी निज में, | बारबार कटि-वसन खींचती, विस्मित खोयी-सी निज में, | ||
− | + | शिथिल करों से पोंछ अधर पर से रवि के चुम्बन, गाती | |
कौन, आह! तुम ओसकणी-सी जग के सूखे सरसिज में? | कौन, आह! तुम ओसकणी-सी जग के सूखे सरसिज में? | ||
तुम वसंत-दूतिका, शिशिर-सहचरी कि रानी हो वन की? | तुम वसंत-दूतिका, शिशिर-सहचरी कि रानी हो वन की? | ||
या तीनों से भिन्न कल्पना हो केवल कवि के मन की? | या तीनों से भिन्न कल्पना हो केवल कवि के मन की? | ||
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16:59, 12 जनवरी 2015 के समय का अवतरण
अर्धनग्न तनु, मुख पर झीना किसलय-अवगुंठन खींचे
बैठी उन्मन प्रेम-व्यथायें भर कंपित स्वर-लहरी में,
चिर-एकाकिनि! अयि मरुवासिनि! इस पीपल-तरु के नीचे
कौन वसंती स्वर अलापती तुम निर्जन दोपहरी में?
उष्ण पवन आँधी-सा स्वर्णिम लटें तुम्हारी उड़ा-उड़ा
खेल रहा उजड़े तरु की नंगी शाखाओं से उन्मन,
शेष पत्तियाँ भी उसकी ज्यों सूखे स्तन से छुड़ा-छुड़ा
जननी के, अंक में तुम्हारे बरसा जाता है क्षण-क्षण .
धूल भरी पलकें मलती, अलकें कपोल से खिसकाती,
बारबार कटि-वसन खींचती, विस्मित खोयी-सी निज में,
शिथिल करों से पोंछ अधर पर से रवि के चुम्बन, गाती
कौन, आह! तुम ओसकणी-सी जग के सूखे सरसिज में?
तुम वसंत-दूतिका, शिशिर-सहचरी कि रानी हो वन की?
या तीनों से भिन्न कल्पना हो केवल कवि के मन की?