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"कहीं नहीं बचे / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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हरे वृक्ष
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क्या जाने<br>
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वे वृक्ष
अधूरे और बंजर हम<br>
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अब और<br>
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क्या जाने
किस बात के लिए रुके हैं<br>
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अधूरे और बंजर हम
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अब और
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और सूखेपन से<br>
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ऊबते क्यों नहीं हैं
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इस तरंगहीनता
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उठते क्यों नहीं हैं यों
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धरती को
वन से !<br><br>
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ठीक निर्झरों
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नदियों पहाड़ों
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वन से!
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12:01, 12 मार्च 2016 के समय का अवतरण

कहीं नहीं बचे
हरे वृक्ष
न ठीक सागर बचे हैं
न ठीक नदियाँ
पहाड़ उदास हैं
और झरने लगभग चुप
आँखों में
घिरता है अँधेरा घुप
दिन दहाड़े यों
जैसे बदल गई हो
तलघर में
दुनिया
कहीं नहीं बचे
ठीक हरे वृक्ष
कहीं नहीं बचा
ठीक चमकता सूरज
चांदनी उछालता
चांद
स्निग्धता बखेरते
तारे
काहे के सहारे खड़े
कभी की
उत्साहवन्त सदियाँ
इसीलिए चली
जा रही हैं वे
सिर झुकाये
हरेपन से हीन
सूखेपन की ओर
पंछियों के
आसमान में
चक्कर काटते दल
नजर नहीं आते
क्योंकि
बनाते थे
वे जिन पर घोंसले
वे वृक्ष
कट चुके हैं
क्या जाने
अधूरे और बंजर हम
अब और
किस बात के लिए रुके हैं
ऊबते क्यों नहीं हैं
इस तरंगहीनता
और सूखेपन से
उठते क्यों नहीं हैं यों
कि भर दें फिर से
धरती को
ठीक निर्झरों
नदियों पहाड़ों
वन से!