"साबुत आईने / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर
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इस डगर पर मोह सारे तोड़ | इस डगर पर मोह सारे तोड़ | ||
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दर्पणों में चल रहा हूँ मैं | दर्पणों में चल रहा हूँ मैं | ||
− | चौखटों को छल रहा | + | चौखटों को छल रहा हूँ मैं |
सामने लेकिन मिली हर बार | सामने लेकिन मिली हर बार | ||
− | फिर वही दर्पण मढ़ी | + | फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार |
फिर वही झूठे झरोखे द्वार | फिर वही झूठे झरोखे द्वार | ||
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लौटकर फिर लौटकर आना वहीं | लौटकर फिर लौटकर आना वहीं | ||
− | किन्तु इनसे | + | किन्तु इनसे छूट भी पाना नहीं |
टूट सकता, टूट सकता काश | टूट सकता, टूट सकता काश |
10:10, 28 मई 2015 के समय का अवतरण
इस डगर पर मोह सारे तोड़
ले चुका कितने अपरिचित मोड़
पर मुझे लगता रहा हर बार
कर रहा हूँ आइनों को पार
दर्पणों में चल रहा हूँ मैं
चौखटों को छल रहा हूँ मैं
सामने लेकिन मिली हर बार
फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार
फिर वही झूठे झरोखे द्वार
वही मंगल चिन्ह वन्दनवार
किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से
अनगिनित प्रतिविंव हँसते व्यंग से
फिर वही हारे कदम की मोड़
फिर वही झूठे अपरिचित मोड़
लौटकर फिर लौटकर आना वहीं
किन्तु इनसे छूट भी पाना नहीं
टूट सकता, टूट सकता काश
यह अजब-सा दर्पणों का पाश
दर्द की यह गाँठ कोई खोलता
दर्पणों के पार कुछ तो बोलता
यह निरर्थकता सही जाती नहीं
लौटकर, फिर लौटकर आना वहीं
राह में कोई न क्या रच पाऊंगा
अंत में क्या मैं यहीं बच जाऊंगा
विंब आइनों में कुछ भटका हुआ
चौखटों के क्रास पर लटका हुआ|