"हत्यारे-1 / रामकृष्ण पांडेय" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकृष्ण पांडेय |संग्रह =आवाज़ें / रामकृष्ण प…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 25: | पंक्ति 25: | ||
अपनी नई कविता की आख़िरी पंक्ति सोचते हुए | अपनी नई कविता की आख़िरी पंक्ति सोचते हुए | ||
या अपनी पेंटिंग में एक रंग और भरते हुए | या अपनी पेंटिंग में एक रंग और भरते हुए | ||
− | ख़ून का | + | ख़ून का गाढ़ा लाल रंग |
यह सोचते हुए | यह सोचते हुए | ||
कि थोड़ा-सा और सुन्दर नहीं बना पाए | कि थोड़ा-सा और सुन्दर नहीं बना पाए |
19:38, 5 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
कहाँ जाएगी यह सड़क
किस जंगल, किस बियाबान की ओर
क़दम-क़दम पर जमा हुआ है
गाढ़ा-गाढ़ा ख़ून
हत्यारों का आतंक चारों ओर व्याप्त है
ठीक आपके पीछे जो चल रहा है
उसके हाथ में एक चाकू है आपके लिए
और जो लोग चल रहे हैं आपके आगे
वे अचानक ही पीछे मुड़ कर
मशीनगन का मुँह खोल सकते हैं
आपके ऊपर
तड़-तड़, तड़-तड़, तड़-तड़, तड़-तड़
आप क्या कर लेंगे
धीरे से आँखें मूंद कर सो जाएँगे
यही ना
अपनी नई कविता की आख़िरी पंक्ति सोचते हुए
या अपनी पेंटिंग में एक रंग और भरते हुए
ख़ून का गाढ़ा लाल रंग
यह सोचते हुए
कि थोड़ा-सा और सुन्दर नहीं बना पाए
इस बदरंग होती दुनिया को
बस थोड़ा सा
पर, हत्यारे
उतनी भी मोहलत नहीं दे सकते
क्योंकि वे जानते हैं
कि इतनी ही देर में उनकी वह दुनिया
बदल सकती है
पूरी हो सकती है कविता की आख़िरी पक्ति
अधूरी पेंटिंग को मिल सकता है
रंगों का आख़िरी स्पर्श
मुकम्मल हो सकता है मनुष्य
अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ
पर, हत्यारों को
कोई ख़ूबसूरत दुनिया नहीं चाहिए