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थी रक्त - महासागर तरती॥
रुख उधर किया, मैदान साफ,
रुख इधर किया, मैदान साफ।
मेवाड़ -देश के वीरों ने,
रुख जिधर किया, मैदान साफ॥
वैरी-सेना ने जान लिया,
रण में बच सकते प्राण न अब।
संगर के बीच खड़ा क्षण भर,
रहने देगा मेवाड़ न अब॥
 
भय से सेनानी भग निकले
घोडे भागे, हाथी भागे,
पैदल सबसे पहले भागे,
खिलजी के सब साथी भागे॥
तन में शोणित, मुख में कालिख,
खिलजी हाथी पर चढ़ भागा।
चित्तौड़ विरसू गढ़ से लड़,
मानो दिल्ली का गढ़ भागा॥
 
ललकार किया पीछा अरि का,
फिर खड़े हो गये धीर-वीर।
क्षण-क्षण गरजे क्षण-क्षण तरजे,
रव उठता मारुत चीर-चीर॥
 
कर कर झण्डे का अभिवादन
नर-नाहर गढ़ की ओर चले।
अपने शरीर के घावों पर
कर-कर आँखों की कोर चले॥
 
अन्तर में जय-उल्लास लिये
गढ़ के भीतर आ गये वीर।
माला पहनाने को उनको
हो रही युवतियाँ थीं अधीर॥
 
मङ्गल के गीत मधुर गाकर,
सामोद पिन्हाये विजय-हार।
चन्दन-अक्षत से पूजा की,
की पुलक आरती बार-बार॥
 
सब देख रहे थे वीरों को
आँखों में भर-भर प्रेम-नीर।
अब सूख रहे थे स्वेद-बिन्दु,
पंखा झलता सन्ध्या-समीर॥
 
पश्चिम की और दिवाकर भी
धीरे धीरे रथ हाँक रहा।
धावो की ओर प्रतीची के
वातायन से था झाँक रहा॥
 
नभ पर आकर रजनीपति भी
यह दृश्य देखता था अधीर।
ओसो के मिस बह-बह जाते,
तरु-तरु पत्तो पर नयन-नीर॥
 
पथिक, भगा दिल्ली बैरी, पर
काम-पिपासा बनी रही।
प्रेम-मिखारी था. पर उसकी
रावल पर भ्रू तनी रही॥
 
पथिक, पद्मिनी-रूप-ज्वाल में
जलता था वह मतवाला।
उसे भुलाने को कामी वह
पीता भर-भर मधु-प्याला॥
 
कभी स्वप्न में हँस पड़ता था
कभी स्वप्न में गाता था।
कभी चौंककर उठ जाता था,
रो-रो अश्रु बहाता था॥
 
हँसकर बोला पथिक व्रती से,
क्या फिर इसके बाद हुआ?
अपनी पहली असफलता पर
क्या उसको उन्माद हुआ?
 
यदि सचमुच उन्माद हुआ तो
कहो कथा संक्षेप न हो।
नग्न चित्र हो, तथ्य सरल हो,
साधु-भाव का लेप न हो॥
 
हँसा पुजारी, हँसते ही
उन्मीदी का उन्माद कहा।
सुन्दरियों की कही कहानी
खिलजी-चिर-संवाद कहा॥
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