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जौहर / श्यामनारायण पाण्डेय / युद्ध / पृष्ठ २

तलवार गिरी वैरी - शिर पर,
धड़ से शिर गिरा अलग जाकर।
गिर पड़ा वहीं धड़, असि का जब
भिन गया गरल रग रग जाकर॥

गज से घोड़े पर कूद पड़ा,
कोई बरछे की नोक तान।
कटि टूट गई, काठी टूटी,
पड़ गया वहीं घोड़ा उतान॥

गज - दल के गिर हौदे टूटे,
हय - दल के भी मस्तक फूटे।
बरछों ने गोभ दिए, छर छर
शोणित के फौवारे छूटे॥

लड़ते सवार पर लहराकर
खर असि का लक्ष्य अचूक हुआ।
कट गया सवार गिरा भू पर,
घोड़ा गिरकर दो टूक हुआ॥

क्षण हाथी से हाथी का रण,
क्षन घोड़ों से घोड़ों का रण।
हथियार हाथ से छूट गिरे,
क्षण कोड़ों से कोड़ों का रण॥

क्षण भर ललकारों का संगर,
क्षण भर किलकारों का संगर।
क्षण भर हुंकारों का संगर,
क्षण भर हथियारों का संगर॥

कटि कटकर बही, कटार बही,
खर शोणित में तलवार बही।
घुस गए कलेजों में खंजर,
अविराम रक्त की धार बही॥

सुन नाद जुझारू के भैरव,
थी काँप रही अवनी थर थर।
घावों से निर्झर के समान
बहता था गरम रुधिर झर झर॥

बरछों की चोट लगी शिर पर,
तलवार हाथ से छूट पड़ी।
हो गए लाल पट भीग भीग,
शोणित की धारा फूट पड़ी॥

रावल - दल का यह हाल देख
वैरी - दल संगर छोड़ भगा।
हाथों के खंजर फेंक फेंक
खिलजी से नाता तोड़ भगा॥

सेनप के डर से रुके वीर,
पर काँप रहे थे बार - बार।
डट गए तान संगीन तुरत,
पर हाँफ रहे थे वे अपार॥

खूँखार भेड़ियों के समान
भट अरि - भेड़ों पर टूट पड़े।
अवसर न दिया असि लेने का
शत - शत विद्युत् से छूट पड़े॥

लग गए काटने वैरी - शिर,
अपनी तीखी तलवारों से।
लग गए पाटने युद्धस्थल,
बरछों से कुन्त-कटारों से॥

अरि - हृदय - रक्त का खप्पर पी
थीं तरज रही क्षण क्षण काली।
दाढ़ों में दबा दबाकर तन
वह घूम रही थी मतवाली॥

चुपचाप किसी ने भोंक दिया,
उर - आरपार कर गया छुरा।
झटके से उसे निकाल लिया,
अरि - शोणित से भर गया छुरा॥

हय - शिर उतार गज - दल विदार,
अरि - तन दो दो टुकड़े करती।
तलवार चिता - सी बलती थी,
थी रक्त - महासागर तरती॥

रुख उधर किया, मैदान साफ,
रुख इधर किया, मैदान साफ।
मेवाड़ -देश के वीरों ने,
रुख जिधर किया, मैदान साफ॥

वैरी-सेना ने जान लिया,
रण में बच सकते प्राण न अब।
संगर के बीच खड़ा क्षण भर,
रहने देगा मेवाड़ न अब॥

भय से सेनानी भग निकले
घोडे भागे, हाथी भागे,
पैदल सबसे पहले भागे,
खिलजी के सब साथी भागे॥
 
तन में शोणित, मुख में कालिख,
 खिलजी हाथी पर चढ़ भागा।
चित्तौड़ विरसू गढ़ से लड़,
मानो दिल्ली का गढ़ भागा॥

ललकार किया पीछा अरि का,
फिर खड़े हो गये धीर-वीर।
क्षण-क्षण गरजे क्षण-क्षण तरजे,
 रव उठता मारुत चीर-चीर॥

कर कर झण्डे का अभिवादन
नर-नाहर गढ़ की ओर चले।
अपने शरीर के घावों पर
कर-कर आँखों की कोर चले॥

अन्तर में जय-उल्लास लिये
गढ़ के भीतर आ गये वीर।
माला पहनाने को उनको
हो रही युवतियाँ थीं अधीर॥

मङ्गल के गीत मधुर गाकर,
सामोद पिन्हाये विजय-हार।
चन्दन-अक्षत से पूजा की,
की पुलक आरती बार-बार॥

सब देख रहे थे वीरों को
आँखों में भर-भर प्रेम-नीर।
अब सूख रहे थे स्वेद-बिन्दु,
पंखा झलता सन्ध्या-समीर॥

पश्चिम की और दिवाकर भी
धीरे धीरे रथ हाँक रहा।
धावो की ओर प्रतीची के
वातायन से था झाँक रहा॥

नभ पर आकर रजनीपति भी
यह दृश्य देखता था अधीर।
ओसो के मिस बह-बह जाते,
तरु-तरु पत्तो पर नयन-नीर॥

पथिक, भगा दिल्ली बैरी, पर
काम-पिपासा बनी रही।
प्रेम-मिखारी था. पर उसकी
रावल पर भ्रू तनी रही॥

पथिक, पद्मिनी-रूप-ज्वाल में
जलता था वह मतवाला।
उसे भुलाने को कामी वह
पीता भर-भर मधु-प्याला॥

कभी स्वप्न में हँस पड़ता था
कभी स्वप्न में गाता था।
कभी चौंककर उठ जाता था,
रो-रो अश्रु बहाता था॥

हँसकर बोला पथिक व्रती से,
क्या फिर इसके बाद हुआ?
अपनी पहली असफलता पर
क्या उसको उन्माद हुआ?

यदि सचमुच उन्माद हुआ तो
कहो कथा संक्षेप न हो।
नग्न चित्र हो, तथ्य सरल हो,
साधु-भाव का लेप न हो॥

हँसा पुजारी, हँसते ही
उन्मीदी का उन्माद कहा।
सुन्दरियों की कही कहानी
खिलजी-चिर-संवाद कहा॥