"चैटिंग प्रसंग / लाल्टू" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाल्टू |संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू }} <poem> '''1…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू | |संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
'''1''' | '''1''' | ||
अनजान लोगों से बात करते हुए | अनजान लोगों से बात करते हुए | ||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
इसके अन्दर हैं | इसके अन्दर हैं | ||
व्यथाएँ, अनन्त गान | व्यथाएँ, अनन्त गान | ||
− | अनन्त अट्टहास समाए हैं इसमें | + | अनन्त अट्टहास समाए हैं इसमें । |
'''2''' | '''2''' | ||
पंक्ति 25: | पंक्ति 25: | ||
देखती हूँ उसकी आँखें | देखती हूँ उसकी आँखें | ||
सचमुच बड़ीं | सचमुच बड़ीं | ||
− | आश्चर्य भरीं | + | आश्चर्य भरीं । |
उसकी बातों में डींगें नहीं हैं | उसकी बातों में डींगें नहीं हैं | ||
− | हर दूसरे तीसरे की बातों से अलग | + | हर दूसरे-तीसरे की बातों से अलग |
हालाँकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी | हालाँकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी | ||
उसके शब्दों में | उसके शब्दों में | ||
महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर | महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर | ||
− | निरन्तर गतिमान | + | निरन्तर गतिमान । |
क्या उसकी जीभ भी | क्या उसकी जीभ भी | ||
पंक्ति 40: | पंक्ति 40: | ||
अचानक ही गड़ जाएँ मेरी रगों पर? | अचानक ही गड़ जाएँ मेरी रगों पर? | ||
उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो वह होगी | उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो वह होगी | ||
− | सूरज के चारों ओर धरती की परिधि से भी बड़ी | + | सूरज के चारों ओर धरती की परिधि से भी बड़ी । |
इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है | इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है | ||
− | तो कैसे न बनूँ उसके लिए एक छोटी सी कली! | + | तो कैसे न बनूँ उसके लिए एक छोटी सी कली ! |
+ | </poem> |
12:14, 11 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
1
अनजान लोगों से बात करते हुए
निकलती हूँ अपने स्नायु जाल से
कड़ी दर कड़ी खुलती हैं गुत्थियाँ
दूर होते असंख्य राक्षस भूत-प्रेत
छोटे बच्चे सा यकीन करती हूँ
यह यन्त्र यह जादुई पर्दा
हैं कृष्णमुख,
इसके अन्दर हैं
व्यथाएँ, अनन्त गान
अनन्त अट्टहास समाए हैं इसमें ।
2
वह जो मुझसे बातें करता है
पर्दे पर उभरे शब्दों में
देखती हूँ उसकी आँखें
सचमुच बड़ीं
आश्चर्य भरीं ।
उसकी बातों में डींगें नहीं हैं
हर दूसरे-तीसरे की बातों से अलग
हालाँकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी
उसके शब्दों में
महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर
निरन्तर गतिमान ।
क्या उसकी जीभ भी
लगातार चलती होगी?
क्या उसके दाँत उसके शब्दों जैसे तीखे हैं
जो खेलते हुए बचपन का कोई खेल
अचानक ही गड़ जाएँ मेरी रगों पर?
उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो वह होगी
सूरज के चारों ओर धरती की परिधि से भी बड़ी ।
इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है
तो कैसे न बनूँ उसके लिए एक छोटी सी कली !