|संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू
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'''1'''
अनजान लोगों से बात करते हुए
इसके अन्दर हैं
व्यथाएँ, अनन्त गान
अनन्त अट्टहास समाए हैं इसमें.।
'''2'''
देखती हूँ उसकी आँखें
सचमुच बड़ीं
आश्चर्य भरीं.।
उसकी बातों में डींगें नहीं हैं
हर दूसरे -तीसरे की बातों से अलग
हालाँकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी
उसके शब्दों में
महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर
निरन्तर गतिमान. ।
क्या उसकी जीभ भी
अचानक ही गड़ जाएँ मेरी रगों पर?
उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो वह होगी
सूरज के चारों ओर धरती की परिधि से भी बड़ी .।
इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है
तो कैसे न बनूँ उसके लिए एक छोटी सी कली!</poem>