भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चैटिंग प्रसंग / लाल्टू

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1
अनजान लोगों से बात करते हुए
निकलती हूँ अपने स्नायु जाल से
कड़ी दर कड़ी खुलती हैं गुत्थियाँ

दूर होते असंख्य राक्षस भूत-प्रेत
छोटे बच्चे सा यकीन करती हूँ
यह यन्त्र यह जादुई पर्दा
हैं कृष्णमुख,

इसके अन्दर हैं
व्यथाएँ, अनन्त गान
अनन्त अट्टहास समाए हैं इसमें ।

2
वह जो मुझसे बातें करता है
पर्दे पर उभरे शब्दों में
देखती हूँ उसकी आँखें
सचमुच बड़ीं
आश्चर्य भरीं ।

उसकी बातों में डींगें नहीं हैं
हर दूसरे-तीसरे की बातों से अलग
हालाँकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी
उसके शब्दों में
महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर
निरन्तर गतिमान ।

क्या उसकी जीभ भी
लगातार चलती होगी?
क्या उसके दाँत उसके शब्दों जैसे तीखे हैं
जो खेलते हुए बचपन का कोई खेल
अचानक ही गड़ जाएँ मेरी रगों पर?
उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो वह होगी
सूरज के चारों ओर धरती की परिधि से भी बड़ी ।

इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है
तो कैसे न बनूँ उसके लिए एक छोटी सी कली !