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:न था वह निस्पृह तेरा पुत्र?
:भरत ही था क्या मेरा पुत्र?
राम-से सुत को भी वनवास,सत्य है यह अथवा परिहास?सत्य है तो है सत्यानाश,हास्य है तो है हत्या-पाश!"प्रतिध्वनि-मिष ऊँचा प्रासादनिरन्तर करता था अनुनाद।पुनः बोले मुँह फेर महीप--"राम, हा राम, वत्स, कुल-दीप!"हो गये गद्गद वे इस वार,तिमिरमय जान पड़ा संसार।गृहागत चन्द्रालोक-विधानजँचा निज भावी शव-परिधान!सौध बन गया श्मशान-समान,मृत्यु-सी पड़ी केकयी जान।चिता के अंगारे-से दीप,जलाते थे प्रज्वलित समीप!"हाय! कल क्या होगा?" कह काँप,रहे वे घुटनों में मुँह ढाँप।आप से ही अपने को आजछिपाते थे मानों नरराज!वचन पलटें कि भेजें राम को वन में,उभय विध मृत्यु निश्चित जान कर मन मेंहुए जीवन-मरण के मध्य धृत से वे;रहे बस अर्द्ध जीवित अर्द्ध मृत-से वे।:इसी दशा में रात कटी,:छाती-सी पौ प्रात फटी।:अरुण भानु प्रतिभात हुआ,:विरुपाक्ष-सा ज्ञात हुआ!
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