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"वह / श्याम महर्षि" के अवतरणों में अंतर

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और मुझ से अधिक कविता को
 
और मुझ से अधिक कविता को
 
गहरे तक जानता है !
 
गहरे तक जानता है !
 
 
अनुवाद : नीरज दइया
 
 
***
 
 
न्याय
 
कव्वै को कव्वा
 
सारस को सारस ही रहने दीजिए
 
चाहे किसी का प्रियतम आए
 
महलों में या फिर किसी का बीर
 
पधारे घर को ।
 
 
इन पर होना क्रोधित
 
या जाहिर करना खुशी
 
दोनों ही बातों का अर्थ
 
उन्हें मालूम नहीं ।
 
 
बिल्ली का रास्ता काटना
 
गधे का किसी दिशा में चलना
 
सुगन-पक्षी का कुछ बोलना
 
कोई सुगन नहीं है
 
ऐसा मानना कहां है न्याय-संगत ?
 
 
इस धरती के
 
और धरती पर बिखरी
 
पूरी प्रकृति के
 
है मालिकाना हक
 
क्या सिर्फ मनुष्यों के ही ?
 
नहीं, यह सब हमारा नहीं
 
इनका और उनका, है सभी का ।
 
  
  
 
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
 
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
 
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05:39, 3 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

वह कल तक
चेजे पर जाता था
और बन रही हवेलियों के नीचे
सो जाता हो कर बेफिक्र

वह करने जाता था मजदूरी
किसी मिल में
पर सोता था अपनी नींद
या फिर जागता अपनी नींद

आज वही खड़ा था
मेरे सामने ताने मुट्ठियां
कारण मैंने लिखी थी
एक कविता उस के लिए

उस ने पढ़ी मेरी कविता
और आ पहुंचा लड़ने
तान कर अपनी मुट्ठियां
जो कल तक नहीं जानता था
नित्य नई बन रही हवेलियों
और मिलों की ऊंची होती
चिमनियों के रहस्य

कल तक वह
शायद जानता नहीं था
अपने के पसीने की कीमत
वर्ना कब का वह आ चुका होता
मेरे सामने
खुली सड़क पर
तान कर मुट्ठी

वह कविता से अधिक मुझे
और मुझ से अधिक कविता को
गहरे तक जानता है !


अनुवाद : नीरज दइया