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वह / श्याम महर्षि
Kavita Kosh से
वह कल तक
चेजे पर जाता था
और बन रही हवेलियों के नीचे
सो जाता हो कर बेफिक्र
वह करने जाता था मजदूरी
किसी मिल में
पर सोता था अपनी नींद
या फिर जागता अपनी नींद
आज वही खड़ा था
मेरे सामने ताने मुट्ठियां
कारण मैंने लिखी थी
एक कविता उस के लिए
उस ने पढ़ी मेरी कविता
और आ पहुंचा लड़ने
तान कर अपनी मुट्ठियां
जो कल तक नहीं जानता था
नित्य नई बन रही हवेलियों
और मिलों की ऊंची होती
चिमनियों के रहस्य
कल तक वह
शायद जानता नहीं था
अपने के पसीने की कीमत
वर्ना कब का वह आ चुका होता
मेरे सामने
खुली सड़क पर
तान कर मुट्ठी
वह कविता से अधिक मुझे
और मुझ से अधिक कविता को
गहरे तक जानता है !
अनुवाद : नीरज दइया