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कुछ आज़ाद शेर / अर्श मलसियानी
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08:22, 15 अप्रैल 2014
जिस पै मक़बूल सज़दा किसी का
-
इक फ़रेबे-
आर्ज़ू
आरज़ू
साबित हुआ
जिसको ज़ौके-बन्दगी समझा था मैं
-
पहुँचे हैं, उस मक़ाम पै अब उनके हैरती
वह ख़ुद खड़े हैं
दीदए
दीद-ए
-हैराँ लिए हुए
-
रहबर तो क्या निशाँ किसी रहज़न का भी नहीं
Gayatri Gupta
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