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कुछ आज़ाद शेर / अर्श मलसियानी

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मेरी ख़मोशी-ए-दिल पर न जाओ
कि इसमें रूह की आवाज़ भी है
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हर गुल हमारी अक्ल पै हँसता रहा
मगर हम फ़स्ले-गुल में रंगे-ख़िज़ाँ देखते रहे
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मेरा कारवाँ लुट चुका है, कभी का
ज़माने को है शौक़ अभी रहज़नी का
अजब चीज़ है आस्ताने-मुहब्बत नहीं
जिस पै मक़बूल सज़दा किसी का
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इक फ़रेबे-आरज़ू साबित हुआ
जिसको ज़ौके-बन्दगी समझा था मैं
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पहुँचे हैं, उस मक़ाम पै अब उनके हैरती
वह ख़ुद खड़े हैं दीद-ए-हैराँ लिए हुए
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रहबर तो क्या निशाँ किसी रहज़न का भी नहीं
गुम-गश्तगी गई है मुझे छोड़ कर कहाँ
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हज़ार पिन्दो-नसायह सुना चुका वाइज़
जो बादाख़्वार थे वह फिर भी बादाख़्वार रहे
इधर यह शान कि इक आह लब तक आ न सकी
उधर यह हाल कि पहरों वह अश्क़वार रहे
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रहबर या तो रहज़न निकले या हैं अपने आप में गुम
काफ़िले वाले किससे पूछें किस मंज़िल तक जाना है
किसका क़र्ब कहाँ की दूरी अपने आप से ग़ाफ़िल हूं
राज़ अगर पाने का पूछे खो जाना ही पाना है
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कूए-जानाँ मुक़ामे-फ़ैज़ है ‘अर्श’
तुम इसी काबे का तवाफ़ करो