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यह जन्म ऋतु - संबीज का
लेकर परीक्षित गोद में
घूमे अधीरा उतरा उत्तरा
लो ,दृष्टि आँके ताल की
छवियाँ अपत्रित डाल की
निरखे खुला आकाश भी
मुक्ता बनेगी हर व्यथा
सुनकर हरी अपनी कथा
है आज तो पतझर पतझार सेहर और ओर पीत वसुंधरा
</poem>
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