|रचनाकार=सूरदास
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[[Category:पद]]
राग धनाश्री
<poem>
जौ बिधिना अपबस करि पाऊं।
तौ सखि कह्यौ हौइ कछु तेरो, अपनी साध पुराऊं॥
लोचन रोम-रोम प्रति मांगों पुनि-पुनि त्रास दिखाऊं।
इकटक रहैं पलक नहिं लागैं, पद्धति नई चलाऊं॥
कहा करौं छवि-रासि स्यामघन, लोचन द्वे, नहिं ठाऊं।
एते पर ये निमिष सूर , सुनि, यह दुख काहि सुनाऊं॥
</poem>
है। सदा खुली ही रहतीं पलक न गिरते, तो फिर भी कुछ संतोष हो जाता। एकटक देखती
तो रहती। पर वह भी अब होने का नहीं।
शब्दार्थ :- बिधिना =विधाता, ब्रह्मा। अपबस =अपने वश में। साध पुराऊं =इच्छा पूरी
करूं। त्रास =डांट-दपट, भय। पद्धति =रीति। ठाऊं =स्थान। निमिष = पलक।