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+ | कि,यत्न से रोपी जाऊँ, पोसी जाऊँ! | ||
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+ | फिर-फिर फूट आई. | ||
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+ | आहत भले होऊँ | ||
+ | हत नहीं होती, | ||
+ | झेल कर आघात, | ||
+ | जीना सीख लिया है, | ||
+ | उपेक्षाओँ के बीच | ||
+ | अदम्य हूँ मैं! | ||
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18:44, 21 मई 2013 का अवतरण
धरती तल में उगी घास
यों ही अनायास,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी जाऊँ, पोसी जाऊँ!
हर तरह से, रोकना चाहा, .
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.
सिर उठा चली आऊँगी,
जहाँ तहाँ, यहाँ -वहाँ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती,
झेल कर आघात,
जीना सीख लिया है,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं!