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अदम्य / प्रतिभा सक्सेना

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धरती तल में उगी घास
यों ही अनायास,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी जाऊँ, पोसी जाऊँ!

हर तरह से, रोकना चाहा, .
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.

सिर उठा चली आऊँगी,
जहाँ तहाँ, यहाँ -वहाँ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती,
झेल कर आघात,
जीना सीख लिया है,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं!