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सभी निज शक्ति सहित
रह गया लोक में
परम निरंकुश एकार्णव। '  ******मत्स्य प्रभो के मुख से " मेरे कुल में आकर हरि नेमनु को दिया शिक्षण, मनुज श्रेष्ठ मनु ने जीवन में किया सहज जीवन-दर्शन। मत्स्य प्रभो के मुख से निकली सुधाधार-सी शुभ वाणी निखिल सृष्टि की मंगलकर्त्री पावन-पावन कल्याणी। द्वन्द्व त्रस्त अपने उर-अन्तरको सुरम्य विश्राम दिया, हाथ जोड़ श्रद्धानत मनु नेबारम्बार प्रणाम किया। " " मत्स्य प्रभो! तुम विश्वरूप हो धर्मरूप अविनाशी हो, निखिल ज्ञान के महाकोश हो मंगल घट-घट वासी हो। करो धर्म उपदेश लोकहितपावन पुण्य प्रकाम हरे! जिससे भावी राजाओं मेंजगे विवेक विकास करे। "   " मेरे प्रिय मनु! मैं तो कालातीत परम यश अक्षर हूँ, उर-अन्तर की दिव्य चेतना का आधार शुभंकर हूँ। श्रेय और यश मूलएक मैं ही सचराचर में रहता, देख रहा हूँ नित्य सभी कुछकिन्तु नहीं कुछ भी कहता। ज्यों जल का बुलबुला उसी में बनकर लय हो जाता है, त्यों मुझसे बनकर समस्त जग मुझमें ही खो जाता है। नित्य नये श्रंगार ध्वंस केक्रम अविराम चला करते, कभी मधुर मधुमास कभीआतप पतझार ढ़ला करते। यह अखण्ड विस्तार सृष्टि का मेरा क्षणिक कला कौशल, मेरी साँसों में अनन्त ब्रह्माण्डों की रहती हलचल। धर्म ज्ञान है पूर्ण उसी काजिसने हो आचरण किया, और निरर्थक है उसकाजिसने बस शब्दावरण दिया। हे मनु! सदा तुम्हारा जीवन परम प्रणेता का पथ हो, स्वार्थ हीन परमार्थ भाव में तिष्ठित जिसका इति अथ हो। हे नर श्रेष्ठ! प्रथम जनप्रतिनिधि, धर्म प्रजारंजन करना, ब्राह्मण सेवा, गौ सेवा, गुरु सेवा, सुखसाधन करना। दान पात्र ब्राह्मण को होता सदा पुण्यकारी, जिससे बढ़ती है महानता विपदाएँ टलतीं भारी। किन्तु ब्राह्मण मात्र ब्रह्मकुलमें जन्मा पर्याप्त नहीं, धर्म-कर्म-विद्या-विवेक में हो पाया यदि आप्त नही, संस्कारों से शून्य समुज्ज्वल परम ज्ञान आधार नहीं, तो उसको ब्राह्मण कहलाने का कोई अधिकार नहीं। बिना ज्ञान के मनुज पूर्णताजीवन में कब पाता है, ब्रह्मज्ञान पाकर ही जग में नर ब्राह्मण कहलाता है। नहीं दैव से मात्र कर्म से सिद्धि पा सके हैं शासक, रहे सतत पुरुषार्थ अखण्डित पूर्ण विजयश्री पाने तक। यद्यपि भाग्य कर्म दोनो हीकार्यसिद्धि के हैं कारण, किन्तु कर्म को ही प्रधानतासे करता हूँ मैं धारण। मन वांछित परिणाम न यदि दे सके कर्म तो दुखित न हों, करते रहें कर्म अपना, विश्राम न लें नृप कुपित न हों। राजधर्म के शक्ति मूल मेंनिहित सत्य की धारा है, जिसके पावनतम महात्म्य को किसने यहाँ नकारा है? सत्य परमधन है जीवन का नहीं त्याग इसका उत्तम, और सत्य के सिवा नही कोई देता विश्वास परम। यही सत्य राजधर्म कामेरुदण्ड सम्बल उज्ज्वल, यही सत्य शासन की धारा कोकरता निर्मल हरपल। सत्य परायण मृदुभाषी नृप लक्ष्यभ्रष्ट होता न कभी, वह प्रसन्न रहता आजीवन दुख में भी रोता न कभी। सत्य, धर्म, मर्यादा काजो नृप पालन कर पाता है, देश-देश में उसके यश काध्वज पावन फहराता है। शत्रु-मित्र सब उसकी नीति निपुणता का करते गायन। राष्ट्र प्रचुर उन्नति करता है, और शान्ति करती नर्तन। अधीनस्थ राजाओं काजो नृप कुटुम्बवत मान करे, कर दाताओं का शासन मेंव्यर्थ न जो अपमान करे, उसकी शक्ति भक्ति बढ़ती है गौरव गुण बढ़ जाता है, करे प्रजा से स्नेह पुत्रवत धर्मवीर कहलाता है। अनुशासन में रहकर जो नृपराजधर्म पालन करता, वह लक्ष्मी की सतत कृपा सेवंचित कभी नहीं रहता। अति कठोरता अति उदारता दोनों ही घातक होतीं; दृष्टि समन्वय की शासन में सुख के सफल बीज बोती। अति कोमल व्यवहार अवज्ञा का है सम्वर्धन करता, और कठोर घोर शासन में, राष्टद्रोह सर्जन करता। ब्राह्मण से क्षत्रिय, पत्थर से लोहा, जल से अग्नि सृजित, इन तीनों का तेज दूसरी जगहों पर होता द्विगुणित, किन्तु घात अपने उद्गम परजब-जब तीनों करते हैं, विवश तभी दुर्बलताओं मेंघिरकर घुट-घुट मरते हैं। हे नरश्रेष्ठ! भूसुरों का अभिनन्दन वन्दन बन्द न हो, पूज्य सदा से रहे, रहेगें, उनका अर्चन मन्द न हो; किन्तु विप्र यदि धर्मक्षय काकटु-कारण बनकर छाये, घोर अधर्म दुराचरणों कापोषक ही बनता जाये, तो है दयाधर्म से बाहर कठिन दण्ड का वह भागी, दोष न उसे दण्ड देने में यदि दुर्गुण का अनुरागी। धर्म-कर्म में जहाँ ठीक सेधन का व्यय हो जाता है, वहीं शान्ति का अतुलनीय पावन संचय हो जाता है, उस नर के अन्तस में आते दूषित कभी विचार नहीं धर्म-अर्थ दोनों में घटता जिसका रंच प्रसार नहीं। तन-मन पावन हो जाता हैहो जाता पावन जीवनसुख सम्पत्ति शक्ति बढ़ती हैबढ़ जाता है यश का धन। धर्म-अर्थ की नीति काम से बाधित होती नहीं जहाँ दूर सभी चिन्ताएँ रहती मोक्ष निवसता सदा वहाँ। नीति-निपुण, मेधा, विवेक, व्याख्यान-शक्ति निर्मल उज्ज्वल, प्रखर तत्व परिणाम दर्शिताछः गुण जिसमें बसे सबल। वही श्रेष्ठ आदर्श परम शासक कहलाता वसुधा पर धर्म-नीति का पालन करके पता अमर कीर्ति का वर। किन्तु आज के शासकशासक नहीं मात्र शोषक-से हैं, सभी शासकोचित लक्षण से हीन घोर दोहक-से हैं। देश-धर्म का नहीं ध्यान है ध्यान मात्र अपने तन का, राजकोष का लूट-लूटकर ढेर लगाते हैं धन का, बने काम के चाकर हरदम धर्म ध्वस्त करने वाले, शुभ्र सत्वगुण हीन विकारोंमें घुट-घुट मरने वाले। संयम का पालन जो शासक नहीं ठीक कर पाता है। वह स्वराज्य धन-धाम सहित अति शीघ्र नष्ट हो जाता है। आलस, क्रोध, प्रमाद औरइन्द्रिय परवशता, नास्तिकता, सज्जन त्याग, अर्थ चिन्तन, मूर्खो का संग, भंग-शुचिता, वाणी-समय-अर्थ-संयम से दीन हीन मिथ्यावाचन, दीर्घ सूत्रता और सुनिश्चित कार्यों में लगते बे-मन।  सघन उक्त दोषों से मण्डितनर हो भले छत्र धारी, भौतिक मरुमाचिकाउसके जीवन को करती खारी। दृष्टि नहीं सद्गुण पर उनकी कभी पहुँच पाया करती। पतनोन्मुखी दुर्गुणो पर ही रसना ललचाया करती। ज्ञान रसामृत नहीं चेतनाउनमे कुछ भर पाता है, वंशी वादन ज्यों न भैंस कोसुखी रंच कर पाता है। परमतत्व का मिथ्यावाचन विज्ञापन करते हरपल, किन्तु तत्व की गुरुता को कब बना सके अपना सम्बल? दान सफल करता है धन कोयज्ञ वेद को है करता, नारी सफल रत्न-सुत से है जो भविष्य का है भर्ता, शास्त्र सफल है सदाचार शुचि शील शान्ति देने वाला, मन्त्र सफल है जीवन को उन्नति पथ ले चलने वाला, विद्या वही सफल है, जो अभाव जीवन के सब हर ले साधन भजन सफल है, जो मानव मन को बस में कर ले जीवन वही सफल है जो परमार्थ तत्व से हो सिंचित परदुख का कर हरण सुख सुधा बाँट सके जग में किंचित। धन आता है और चलाजाता है फिर आ जाता है, किन्तु चरित्र गया तो फिरवह कभी नहीं आ पाता है। संयम की पूँजी चरित्र है रत्न अमूल्य अतुल अनुपम। उसकी रक्षा करने में कब सफल हो सका मन संभ्रम। तन मन धन स्वधर्म गौरवमयउन्नति करना हरषाना, बिना सुदृढ़ संकल्प शक्ति केलक्ष्य असम्भव है पाना। वैचारिक गोपनता के बिन है न कभी निश्चय करना, अन्तस की हो विजय या कि बाहरी जगत हो जय करना। जग तक मेघ विचार नहींमन-अम्बर से छट जाते हैंतग तक अन्तस की विराटताके न दर्श हो पाते हैं। हो निरुपाय जर्जरित काया फिर भी भोग नहीं भरता, वैचारिक-दूषण बटोरकर उर-अन्तर तिल-तिल भरता। कुमति-निर्झरी से अविरलमानसिक भोग झरता रहता, बाहर गलती दाल नहींभीतर कामना-कुसुम दहता। जीर्ण-शीर्ण होकर विवेक कटु पीड़ाएँ सह लेता है, सिर धुनती है सुमति विवश हो दुर्मति हाय! विजेता है। संकल्पों के ऋण-कुटीरउड़ जाते विषय-प्रभंजन में, जब जगती आसक्ति मोह-आवरण सघन बनते मन में, विष अमरत दोनों मिलते हैं मनस सिन्धु के मन्थन से, शिव-विवेक है कहाँ पान कर लें जो विष-घट जन-मन में। क्या खोया है पाया हैकिसका कौन प्रणेता है? हरि की लीला हरि ही जानेकब किसको क्या देता है? जब तक भरा हुआ अन्तरतम जब तक कपट-कपाट कसे, जब तक अन्तःपुर में दल बल सहित असंख्य विचार बसे,  तब तक दिव्य चेतनाओं कावहाँ आगमन सपना है, जब तक क्षणभंगुर जीवन मेंरटना अपना-अपना है। यदि न ज्ञान के दिव्य दिवाकर का होता आगमन यहाँ, अन्धकार को तो पवित्र आचरण न होता सहन यहाँ। यदि न घोर आतप की बेलाइस धरती को धधकाती, तो न धधकते सिन्धुन बनते मेघ न वृष्टि मधुर आती। सफल न होते शुष्क वृक्ष हैं व्यर्थ नित्य करना सिंचन, पाषाणी प्रतिमाओं में जग सका भला कब सद्चिन्तन। भाषा वही श्रेष्ठ है जिसमेंस्ंचित सकल लोक-मंगल, हर लेती दोष दुःखकर देती मन मन्दिर उज्ज्वल। जीवन को जीवन्त बनाती सतोगुणी धारा पावन, गढ़ती आदर्श सत्य करती देदीप्यमान आनन। सतोगुणी नर धरती परदुख पीड़ाएँ तो पाता है, किन्तु एक दिन जीवन काआदर्श परम बन जाता है। मनुज श्रेष्ठ! यह धर्म धरा पर क्षितिजों से भी है विस्तृत देश काल के साथ रूप इसका होता है परिवर्तित। किन्तु धर्म सबमें समानतासे बसता, अविनाशी है, नहीं धर्म के लिए भिन्न कुछक्या काबा क्या काशी है? रहा सना तन में है सबके धर्म सनातन से अक्षर, और प्रलय पर्यन्त रहेगा धारे धरा-ज्ञान-अम्बर। राजन! धरती के समस्तधर्मों का अभिनन्दन करना, किन्तु समर्पण हो स्वधर्म के हित अखण्ड इच्छा रखना। धर्म गैर धरती पर राजन! नहीं ग्रहण करना अच्छा, इससे तो स्वधर्म के पथ पर गौरव से मरना अच्छा। धर्म-पिता को छोड़अनाथों से अपना कहते फिरते, अपनी गौरव गरिमा सेविस्खिलित दलित दुख से घिरते। जब तक जन-जन में समान दर्शन न कर सकोगे राजन! तब तक नहीं मनुजता का सम्बलित हो सकेगा साधन।  दुष्टों का संहारसाधु की सेवा सम फलदायी है, ऋषियों ने महिमा स्वधर्म की मानक यही बतायी है। दुष्टों का संहार शान्ति- उत्तम समाज में है लाता, और साधु सेवा से सद्गुण उन्नत होता हरशाता। मनुज श्रेष्ठ! यह वही धर्म हैजो नर का है चिर सहचर, जन्म कहीं भी मिले जीव कायह न विलग होता पलभर। धरती का वैभव-विलास सब धरती पर है रह जाता, तात! धर्म के सिवा साथ कुछ भी न मनुज के रह पाता, अतः धर्म की गति अखण्ड हैजो न कभी रुक पाती है, सात्विक संस्कारों की जननीसदा शान्ति बरसाती है। यही धर्म सात्विक स्वभाव का जन मन में सर्जन करता, करता जागृत जिजीविषा शुभ शुचि विवेक है संचरता। पतझर का आतंक देखधरती की छाती फटती हैकिसी तरह दिन-रात जिन्दगीपीड़ाओं में कटती है, ऐसे ही अधर्म-पतझर जब मानवता में आता है, संस्कारों से शून्य मनुज का तन-मनधन हो जाता है। तात! प्रज्वलित होते हैंजब परमज्ञान के दीप यहाँ, तब प्रकाश की प्रखर रश्मियाँप्रसरित होतीं यहाँ-वहाँ, और धर्म गुरु तत्व-ज्ञान- धन स्नेह-सुधा बरसाते हैं तब अधर्म अंधड़ से तापित मन-पादप मुस्काते हैं। तात! मनुजता की बगिया में धर्म-बसन्त विहँसता है, फूल-फूल पर कली-कली पर नव उल्लास थिरकता है, प्रकृति प्रिया के कानों में हैं मधुर-मधुर गाते अलिदल, धर्म वसन्त समुन्नत होता कान्त कान्ति पुलकित पाटल। जीवन का श्रंगार धर्म हैऔर धर्म का है जीवन, एक दूसरे से षोभापाते ज्यों भाल और चन्दन। उर-अन्तरकी बुझी ज्योति मैने फिर आज जला दी है, मनुज-धर्म की व्यापक महिमा यथाशक्ति बतला दी है। अपनाओगे अगर धरा परअक्षर यश को पाओगे, शुभ्र किरीट आर्य संस्कृति केस्दा-सदा कहलाओगे। " धन्य-धन्य हे मत्स्यप्रभो! हूँ परमधन्य मैं आज हुआ, मनुज धर्म का मर्म जान मैं मनु से मनु महराज हुआ। हे माधुर्यशिखर! हे पावन! जग पावन करने वाले, हे करुणावरुणालय! जीवन की ज्वाला हरने वाले। अपनी दिव्य छटा से मेरा मनमन्दिर चमका जाओ आओ प्राणाधार! प्राण में मेरे सहज समा जाओ
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