जब देखी मैंने प्रलय / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
विस्मित अवाक रह गयी
एक क्षण जड़ होकर
जब देखी मैंने प्रलय
चण्डिका जल थल में,
विकराल काल ने
कुछ भी छोड़ा नहीं यहाँ,
जीवन का विलय हुआ
जीवन की हलचल में।
मैंने देखी वह घड़ी
नेत्र जब पथराए
जल शिखर गरजते
हुए व्योम की ओर बढ़े;
थे लगे बिखरने दिग्गज
कम्पित दिग्दिगन्त,
तारों के संकुल तोड़
चन्द्र के शीश चढ़े।
क्षणभर में लीला
किसने लोकालोक सभी,
हो गया भंग
चन्द्रिका शुभ्र का रश्मि जाल,
कैसे कब क्या हो गया-
घटित भयभीत सर्व
ताण्डव नर्तन कर उठा
अचानक महाकाल।
मिट गये चिह्न तक
वासन्ती मधुमाधव के,
सो गये शून्य में
कहीं कोयलों के मंगल,
जाने किसने विषभरा
चलाया जादू था
हो गये मौन
अलियों के मधुरिम गान सकल।
हो गया प्रकृति का
राग रंग बदरंग सभी,
थे गूँज उठे,
हाहाकारों के स्वर अनन्त।
लय हुए सभी
रस रूप रंग मकरन्द छन्द
देखा सबने
आँखों से अपना दुखद अन्त।
मिल गये प्राण सब
महाप्राण से हर्षित हो
रह गयी एक बस
सूक्ष्म षक्ति सचराचर की,
अक्षर में संचित हुई
चेतना जगती की,
सत्ता हो गयी
अखण्डित सागर की।
मैंने देखा सकरूण
अम्बर सब दिग्दिगन्त,
था रहा न जल के
सिवा दृष्टि में शेष और,
छट गये तर्क के जाल
सभी मेरे मन के
है नीर ब्रह्म ही
तब मैं थी कर सकी गौर।
यति बार-बार लगती थी
प्राणों की गति में
हो गये अचंचल-
चंचल दृग सब दृश्य देख,
दृग के प्राणों तक
ज्वार उभरता था मानों
खिचती थी उर में
भय की विद्युत तप्त रेख।
लहरों की खाकर मार
हार मैं गयी किन्तु
पर रही नाव से
चिपकी मनु की ध्यानमग्न,
जर्जर जीवन, जर्जर नौका
निरुपाय विकल
हो मौन देखती रही
वंश के वंश भग्न।
हर ओर मृत्यु का
महारास देखा मैंने,
हर घड़ी शीश पर
गूँज रहा था मृत्यु छन्द,
हो गये विसर्जित
चिन्तन के आयाम सकल
प्राणों की जलती रही
ज्योति पर मन्द-मन्द।
लुट गयी सृष्टि-सुन्दरी
न कोई रोक सका,
वातेरित जल का महारोष
बन गया काल,
वह हृदय-बिहारी
हृदय हीन होकर कैसे
सब रहा देखता
ध्वंस-धर्म-नर्तन कराल?
हो गया शान्त
धीरे-धीरे बृह्माण्ड सकल
सब ध्वनियाँ कर सम्वर्ग
शेष रह गया प्रणव,
मिट गये सृष्टि के वर्ण
सभी निज शक्ति सहित
रह गया लोक में
परम निरंकुश एकार्णव।'