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"प्रेम करते हुए लोग / गोविन्द माथुर" के अवतरणों में अंतर

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प्रेम करते हुए लोग
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|रचनाकार=गोविन्द माथुर
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प्रेम करते हुए लोग
 
प्रेम करते हुए लोग
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अक्सर रहते हैं चुप-चुप
 
अक्सर रहते हैं चुप-चुप
  
प्रेम करते हुए लोग
 
अक्सर रहते हैं बेखबर
 
  
 
प्रेम करते हुए लोग
 
प्रेम करते हुए लोग
कुछ नहीं सोचते
 
प्रेम के सिवाय
 
  
प्रेम करते हुए लोग
+
अक्सर रहते हैं बेख़बर
अक्सर रहते है घबराए
+
  
प्रेम करते हुए लोग
 
अक्सर रहते है चौकन्ने
 
  
 
प्रेम करते हुए लोग
 
प्रेम करते हुए लोग
अक्सर पकड़े जाते हैं
 
पे्रम करते हुए
 
  
´´´´´´
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कुछ नहीं सोचते
  
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प्रेम के सिवाय
  
  
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प्रेम करते हुए लोग
  
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अक्सर रहते है घबराए
  
बेटिया¡
 
  
बेटी का जन्म होने पर
+
प्रेम करते हुए लोग
छत पर जा कर नही बजायी जाती
+
का¡से की थाली
+
बेटी का जन्म होने पर
+
घर के बुजुर्ग के चेहरे पर
+
बढ़ जाती हैं चिन्ता की रेखाएं
+
  
बेटिया¡ तो यूं ही
+
अक्सर रहते है चौकन्ने
बढ़ जाती हैं रूंख सी
+
बिन सीचें ही हो जाती हैं ताड़ सी
+
फैला लेती हैं जड़ें पूरे परिवार में
+
  
बेटे तो होते हैं कुलदीपक
 
नाम रोशन करते ही रहते हैं
 
बेटिया¡ होती हैं घर की इज्जत
 
दबी ढ़की ही अच्छी लगती हैं
 
  
बेटियों का ह¡सना बेटियों का बोलना
+
प्रेम करते हुए लोग
बेटियों का खाना अच्छा नहीं लगता
+
बेटिया¡ तो अच्छी लगती हैं
+
खाना बनाती, बर्तन मा¡जती
+
कपड़े धोती, पानी भरती
+
भाईयों की डांट सुनती
+
  
 +
अक्सर पकड़े जाते हैं
  
 
+
प्रेम करते हुए
 
+
 
+
 
+
ससुराल जाने के बाद
+
मांओं को बड़ी याद आती हैं बेटिया¡
+
जैसे बिछुड गई हो उनकी कोई सहेली
+
घर के सारे सुख-दुख किस से कहें वो
+
बेटे तो आते हैं मेहमान से
+
उन्हे क्या मालूम मा¡ क्या सोचती है
+
 
+
बेटिया¡ ससुराल जा कर भी
+
अलग नहीं होती जड़ों से
+
लौट-लौट आती हैं
+
सहेजने तुलसी का बिरवा
+
जमा जाती है मा¡ का बक्सा टांक जाती है
+
पिता के कमीज पर बटन
+
 
+
बेटे का जन्म होने पर
+
छत पर जा कर
+
का¡से की थाली बजाती है बेटिया¡
+
 
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´´´´´´
+
 
+
 
+
 
+
 
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काम से लौटती स्त्रिया¡
+
 
+
जिस तरह हवाओं में
+
लौटती है खुशबू
+
पेड़ों पर लौटती हैं चििड़या¡
+
शाम कों घरों को लौटती हैं
+
काम पर गई स्त्रिया¡
+
 
+
सारा दिन बदन पर
+
निगाहों की चुभन महसूसती
+
फूहड़ और अश्लील चुटकुलोंंंंंंं से ऊबी
+
शाम को घरों को लौटती हैं
+
काम पर गई स्त्रिया¡
+
 
+
उदास बच्चों के लिए टॉफिया¡
+
उदासीन पतियों के लिए
+
सिगरेट के पैकेट खरीदती
+
शाम को घरों को लौटती है
+
काम पर गई स्त्रिया¡
+
 
+
काम पर गई स्त्रियों के साथ
+
घरों में लौटता है घरेलूपन
+
चूल्हों में लौटती है आग
+
दीयों में लौटती है रोशनी
+
 
+
बच्चों में लौटती हैं ह¡सी
+
पुरूषों में लौटता पौरूष
+
आकाश अपनी जगह
+
दिखाई देता हैं
+
पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर
+
शाम को घरों को लौटती हैं
+
काम पर गई स्त्रिया¡
+
 
+
नींद मेें स्त्री
+
कई हजार वर्षों से
+
नींद में जाग रही है वह स्त्री
+
नींद में भर रही है पानी
+
नींद में बना रही है व्यंजन
+
नींद में बच्चों को
+
खिला रही है दाल-चावल
+
 
+
कई हजार वर्षों से
+
नींद में कर रही है प्रेम
+
पूरे परिवार के कपडे़ धोते हुए
+
झूठे बर्तन साफ करते हुए
+
थकती नहीं वह स्त्री
+
हजारों मील नींद में चलते हुए
+
 
+
जब पूरा परिवार
+
सो जाता है सन्तुष्ट हो कर
+
तब अन्धेरे में
+
अकेली बिल्कुल अकेली
+
नींद में जागती रहती है वह स्त्री
+
 
+
´´´´´´
+
 
+
स्त्री की नींद
+
उसने स्त्री की
+
नींद में प्रवेश किया
+
एक स्वप्न की तरह नहीं
+
 
+
उसने स्त्री की
+
देह में प्रवेश किया
+
एक आत्मा की तरह नहीं
+
 
+
देह के हर छिद्र को
+
खोलता हुआ
+
वह टहलता रहा
+
स्त्री के यथार्थ में
+
 
+
स्त्री ने मन के
+
सभी दरवाजे खोल दिए
+
उसने मन में प्रवेश नहीं किया
+
 
+
एक रात जब वह
+
प्रवेश कर रहा था
+
स्त्री के स्वप्न में
+
स्त्री के मन के
+
सभी दरवाजे खुले थे
+
 
+
वह सभी दरवाजों को
+
बन्द करता हुआ
+
स्त्री के स्वप्न से निकल कर
+
किसी दूसरी स्त्री की
+
नींद में प्रवेश कर गया
+
´´´´´´
+
जली हुई देह
+
वह स्त्री पवित्र
+
अग्नि की लौ से गुजर कर
+
आई उस घर में
+
उसकी देह से फूटती रोशनी
+
समा गई घर की दीवारों में
+
दरवाजों और खिड़कियों में
+
 
+
उसने घर की हर वस्तु
+
कपड़े, बिस्तर, बर्तन
+
यहा¡ तक कि झाडू को भी दी
+
अपनी उज्जवलता
+
दाल, अचार, रोटिया¡ को दी
+
अपनी महक
+
 
+
उसकी नींद, प्यास, भूख
+
और थकान विलुप्त हो गई
+
एक पुरूष की देह में
+
 
+
पवित्र अग्नि की
+
लौ से गुजर कर आई स्त्री को
+
एक दिन लौटा दिया अग्नि को
+
 
+
जिस स्त्री ने
+
पहचान दी घर को
+
उस स्त्री की पहचान नही थी
+
 
+
जली हुई देह थी
+
एक स्त्री की
+
´´´´´´
+
छवि
+
जैसा दिखता हू¡
+
वैसा ह¡ू नहीं मैं
+
जैसा ह¡ू वैसा
+
दिखता नही
+
 
+
जैसा दिखना चाहता ह¡ू
+
वैसा भी नही दिखता
+
बहुत कोशिश की
+
अपनी छवि बनाने की
+
 
+
वेशभूषा भी बदली
+
बालो का स्टाइल भी
+
बदलता रहा बार-बार
+
फ्रेंचकट दाढ़ी भी रखी
+
म¡ुह में पाईप भी दबाया
+
जैसा दिखना चाहता था
+
वैसा नही दिखा मैं
+
 
+
लोगो ने नही देखा
+
मुझे मेरी दृष्टि से
+
लोगों ने देखा मुझे
+
अपनी दृष्टि से
+
 
+
में जैसा अन्दर से हू¡
+
वैसा बाहर से नही ह¡ू
+
जैसा बाहर से हू¡
+
वैसा दिखना नही चाहता
+
 
+
वैसा भी
+
नही दिखना चाहता
+
जैसा कि
+
अन्दर से हू¡ मैं
+
 
+
´´´´´´
+

00:11, 3 जुलाई 2008 के समय का अवतरण

प्रेम करते हुए लोग

अक्सर रहते हैं चुप-चुप


प्रेम करते हुए लोग

अक्सर रहते हैं बेख़बर


प्रेम करते हुए लोग

कुछ नहीं सोचते

प्रेम के सिवाय


प्रेम करते हुए लोग

अक्सर रहते है घबराए


प्रेम करते हुए लोग

अक्सर रहते है चौकन्ने


प्रेम करते हुए लोग

अक्सर पकड़े जाते हैं

प्रेम करते हुए