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"हुआ प्रभात / बालकृष्ण गर्ग" के अवतरणों में अंतर

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घोडा काफी देरी से जब
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मुर्गा बोला-’जल्दी उठकर
पहुँच अपने दफ्तर,  
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अगर न दूँ मैं बाँग,  
‘रोज लेट आते हो क्यों तुम’
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हो न सवेरा, सूरज दादा
-घुड़का बंदर अफसर।
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कभी न पाएँ जाग’।
घोडा बोला-‘नहीं, नहीं सर!
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सूरज दादा मुस्काएँ, सुन-
ऐसा कभी न होता;
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‘कुकड़ूँ-कूँ’ की बात;
मैं न लेटता, कभी न लेटा,  
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छिटकी वह मुस्कान धरा पर,
खड़े-खड़े ही सोता’।
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स्वर्णिम हुआ प्रभात’।
[बालक, जुलाई 1977]
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[नंदन, जून 1997]
 
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14:22, 22 मई 2018 के समय का अवतरण

मुर्गा बोला-’जल्दी उठकर
अगर न दूँ मैं बाँग,
हो न सवेरा, सूरज दादा
कभी न पाएँ जाग’।
सूरज दादा मुस्काएँ, सुन-
‘कुकड़ूँ-कूँ’ की बात;
छिटकी वह मुस्कान धरा पर,
स्वर्णिम हुआ प्रभात’।

[नंदन, जून 1997]