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अक्षत-प्रीत / कविता भट्ट

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शिलालेख हों जैसे
मौन खड़े थे मीत'''
3'''3रोयी प्रीत यों
विरह के आँगन
जैसे वन में
करती ही रहेगी
किन्तु, सूर्य दूर है
9'''9घट स्थापना
की है तेरी प्रीत की
हरियाली से
प्रिय तुम पलना
मन-प्राण सींचूँगी'''
10
'''हाथ में तेरे