अक्षत-प्रीत / कविता भट्ट
1
उपस्थित है
श्वेत पटल मन
मिलन-राग
तुम तो लिख डालो
प्रिय! स्वागत गान
2
समय-शिला
विरह की स्याही से
उभरे गीत
शिलालेख हों जैसे
मौन खड़े थे मीत
3
रोयी प्रीत यों
विरह के आँगन
जैसे वन में
छूटी हो सिसकती
सुन्दर बंजारन
4
आएगी फिर
चल द्वार तुम्हारे
मेरी प्रीत तो
भिखारन ठहरी
तुम हो महाराजे
5
एक हिचकी
कंठ में ही ठिठकी
घूँघट ओढ़े
अब भी नहीं आयी
बड़ी राह निहारी
6
हाथ पसारे
खड़ी भिखारन -सी
विवश प्रीत
निर्लज्ज हवस की
देह गिड़गिड़ाए
7
कभी तो बोलो
प्रेम-किवाड़ खोलो
दूर खड़ी है
भूख तो अब कहीं
हाँ! प्यास सदा शेष
8
नील गगन
परिपथ धरा का
परिभ्रमण
करती ही रहेगी
किन्तु, सूर्य दूर है
9
घट स्थापना
की है तेरी प्रीत की
हरियाली से
प्रिय तुम पलना
मन-प्राण सींचूँगी
10
हाथ में तेरे
सौंपी मैंने अपनी
अक्षत-प्रीत
चाहो तो माथे धरो
या गंगा में बहा दो
-०-