भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मन के भुलाएल अरथ / रामकृष्ण" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=संझा-व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
 
सीत में, घाम में, भोर में, साँझ में
 
सीत में, घाम में, भोर में, साँझ में
 
मन उपासल रहल आझ तक अनसहल॥
 
मन उपासल रहल आझ तक अनसहल॥
सब कहलको हे
 
 
कुछ न कहके उ सब कहलको हे,
 
लोर में भींज सब सहलको हे॥
 
आँख तऽ, गोर मन के दरपन हौ,
 
साँस बन नेह के समरपन हौ।
 
तोर किरिआ लहस के सपना के,
 
सब दिरिस आस में सँवारलो हे॥
 
साँझ से भोर तक उदास निअन
 
अनमिझाएल एगो पिआस निअन
 
सोझ मन के इ बात हिरनी के
 
मेह के छाँह बन उतरलो हे॥
 
झाँझ-गोड़ाँव के दरद, हमरा
 
सब कहलको हे इ सरद हमरा।
 
गन्ह सन् पाँव पर कि पिपनी पर
 
अंगे-अँगे खिलखिला पसरलो हे॥
 
ई अँधरिया के पार जाएला
 
सात सुर फिन उतार लावेला
 
एगो असरे हमर सभे जिनगी
 
आप सूखे एने सरसलो हे॥
 
 
</poem>
 
</poem>

12:45, 3 मार्च 2019 के समय का अवतरण

आस के पाँख में, पाँख के साँस में
कउन सुर बन समाएल रहल अनकल
गीत के बंद में, बंद के छंद में
बाँसुरी के बजाबित रहल अनबजल
कउन असरे सँजोगल सपन के भरम
कउन बूझे मिझाएल इ जी के मरम,
राह अजगुत के भर आँख अनदेख में
ले समुन्नर हकासल पिआसल रहल।
एकतारा निअन बन बेचारा निअन
प्रान जोगे लहर चुप किनारा निअन,
सीत में, घाम में, भोर में, साँझ में
मन उपासल रहल आझ तक अनसहल॥