भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन के भुलाएल अरथ / रामकृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आस के पाँख में, पाँख के साँस में
कउन सुर बन समाएल रहल अनकल
गीत के बंद में, बंद के छंद में
बाँसुरी के बजाबित रहल अनबजल
कउन असरे सँजोगल सपन के भरम
कउन बूझे मिझाएल इ जी के मरम,
राह अजगुत के भर आँख अनदेख में
ले समुन्नर हकासल पिआसल रहल।
एकतारा निअन बन बेचारा निअन
प्रान जोगे लहर चुप किनारा निअन,
सीत में, घाम में, भोर में, साँझ में
मन उपासल रहल आझ तक अनसहल॥