भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मर जाती है बात / विजय वाते" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=विजय वाते | |रचनाकार=विजय वाते | ||
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते | |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
}} | }} | ||
12:11, 11 जून 2010 का अवतरण
या तो बहरे कान से टकरा के मर जाती है बात|
या हवाओ में कहीं लहरा के मर जाती है बात|
दिल से दिल का रास्ता सीधा भी है, आसां भी है,
अक्ल की दीवार से टकरा के मर जाती है बात|
बाद ज़ुबानी आज सब गुस्से में करतें है ज़रूर,
गालियों को होड़ से शर्मा के मर जाती है बात|
हर तरज ही शोर है, नारे हैं, जयजयकार हैं,
जानलेवा शोर से घबरा के मर जाती है बात|
बात लगाती है भली की सब जुबानें एक हों,
तर्ज़ुमों के फेर में चकरा के मर जाती है बात|