भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आग / मोहन आलोक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मोहन आलोक |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> आग ये जो चूल्हे म…) |
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
जंगल है | जंगल है | ||
मंगल है | मंगल है | ||
− | मनुख | + | मनुख (मनुष्य) है |
इस के सुख ही | इस के सुख ही | ||
सुख है | सुख है | ||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
और दिन ब दिन | और दिन ब दिन | ||
अजगर की तरह पल रही है । | अजगर की तरह पल रही है । | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
'''अनुवाद : नीरज दइया''' | '''अनुवाद : नीरज दइया''' | ||
</poem> | </poem> |
07:42, 6 मार्च 2011 के समय का अवतरण
आग
ये जो चूल्हे में जल रही है
आग
लोगबाग
इस एक ही रट को लगाए हुए हैं
कि जल रही है
परंतु
मैं कहता हूं
जितना यह जल रही है
उतना ही
जलने से टल रही है
जलता तो
जंगल है
मंगल है
मनुख (मनुष्य) है
इस के सुख ही
सुख है
छल रही है
उत्पति को
निगल रही है
और दिन ब दिन
अजगर की तरह पल रही है ।
अनुवाद : नीरज दइया