भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"धड़कनों में कहीं / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
छू रहे हैं पीठ-गर्दन-माथ | छू रहे हैं पीठ-गर्दन-माथ | ||
खाँसियों में फेफड़े का दर्द ढलता है! | खाँसियों में फेफड़े का दर्द ढलता है! | ||
− | + | :::दिन निकलता है! | |
खिड़कियों से फ़र्श पर कफ़ गिरी | खिड़कियों से फ़र्श पर कफ़ गिरी | ||
− | रैक-टेबिल खाट पर बिखरी | + | रैक-टेबिल-खाट पर बिखरी |
− | सीढ़ियों-सड़कों- | + | सीढ़ियों-सड़कों-दोराहों पर |
− | जिसे ओढ़े बिलबिलाता नगर चलता है! | + | जिसे ओढ़े |
+ | बिलबिलाता नगर चलता है! | ||
आख़िरी क़तरा लहू का : शाम! | आख़िरी क़तरा लहू का : शाम! | ||
पंक्ति 22: | पंक्ति 23: | ||
टूटने को नसें खिंचती हैं | टूटने को नसें खिंचती हैं | ||
धड़कनों में कहीं पर फ़ौलाद गलता है! | धड़कनों में कहीं पर फ़ौलाद गलता है! | ||
− | + | :::दिन निकलता है! | |
− | + | (1965) | |
</poem> | </poem> |
21:28, 29 मार्च 2011 के समय का अवतरण
बहुत ही नन्हें-नरम दो हाथ
छू रहे हैं पीठ-गर्दन-माथ
खाँसियों में फेफड़े का दर्द ढलता है!
दिन निकलता है!
खिड़कियों से फ़र्श पर कफ़ गिरी
रैक-टेबिल-खाट पर बिखरी
सीढ़ियों-सड़कों-दोराहों पर
जिसे ओढ़े
बिलबिलाता नगर चलता है!
आख़िरी क़तरा लहू का : शाम!
एक बदसूरत अंधेरा : व्यस्तता का
व्यवस्थित परिणाम ।
टूटने को नसें खिंचती हैं
धड़कनों में कहीं पर फ़ौलाद गलता है!
दिन निकलता है!
(1965)