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धड़कनों में कहीं / शलभ श्रीराम सिंह
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बहुत ही नन्हें-नरम दो हाथ
छू रहे हैं पीठ-गर्दन-माथ
खाँसियों में फेफड़े का दर्द ढलता है!
दिन निकलता है!
खिड़कियों से फ़र्श पर कफ़ गिरी
रैक-टेबिल-खाट पर बिखरी
सीढ़ियों-सड़कों-दोराहों पर
जिसे ओढ़े
बिलबिलाता नगर चलता है!
आख़िरी क़तरा लहू का : शाम!
एक बदसूरत अंधेरा : व्यस्तता का
व्यवस्थित परिणाम ।
टूटने को नसें खिंचती हैं
धड़कनों में कहीं पर फ़ौलाद गलता है!
दिन निकलता है!
(1965)