{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=वृन्द}}[[नीति के Category:दोहे / वृन्द]] <br>
'''नीति के दोहे''' <br>
{{KKGlobal}}[[वृन्द के दोहे / भाग १]]<br><br>
जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।<br>
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥ 11<br>
[[वृन्द]] अपनी-अपनी गरज सब, बोलत करत निहोर ।<br>बिन गरजै बोले नहीं, गिरवर हू को मोर ॥ 12<br><br>
जैसे बंधन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और ।<br>
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकलै भौंर ॥ 13<br><br>
[[दोहे]] स्वारथ के सबहिं सगे,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।<br>सेवै पंछी सरस तरु, निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14<br><br>
मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पंडित होय ।<br>
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥ 15<br><br>
[[वृन्द]] <br>
बिन स्वारथ कैसे सहे, कोऊ करुवे बैन ।<br>
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन ॥ 16<br><br>
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{{KKGlobal}}होय बुराई तें बुरो, यह कीनों करतार ।<br>खाड़ खनैगो और को, ताको कूप तयार ॥ 17<br><br>
जैसो गुन दीनों दई ,तैसो रूप निबन्ध ।<br>
ये दोनों कहँ पाइये जाको जहाँ स्वारथ सधै,सोनों और सुगन्ध सोई ताहि सुहात ।<br>चोर न प्यारी चाँदनी, जैसे कारी रात ॥ 1118<br><br>
अपनी-अपनी गरज सब अति सरल न हूजियो, बोलत करत निहोर देखो ज्यौं बनराय ।<br>सीधे-सीधे छेदिये, बाँको तरु बच जाय ॥ 19<br><br>
बिन गरजै बोले नहीं ,गिरवर हू को मोर ॥12<br>
जैसे बंधन प्रेम कौ ,तैसो बन्ध न और ।<br> काठहिं भेदै कमल को ,छेद न निकलै भौंर ॥13<br> स्वारथ के सबहिं सगे ,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।<br> सेवै पंछी सरस तरु , निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14<br> मूढ़ तहाँ ही मानिये ,जहाँ न पंडित होय ।<br> दीपक को रवि के उदै , बात न पूछै कोय ॥ 15<br> बिन स्वारथ कैसे सहे , कोऊ करुवे बैन ।<br> लात खाय पुचकारिये ,होय दुधारू धैन ॥16<br> होय बुराई तें बुरो , यह कीनों करतार ।<br> खाड़ खनैगो और को , ताको कूप तयार ॥17<br> जाको जहाँ स्वारथ सधै ,सोई ताहि सुहात ।<br> चोर न प्यारी चाँदनी ,जैसे कारी रात ॥18<br> अति सरल न हूजियो ,देखो ज्यौं बनराय ।<br> सीधे-सीधे छेदिये , बाँको तरु बच जाय ॥19<br> कन –कन जोरै मन जुरै ,काढ़ै निबरै सोय ।<br> बूँद –बूँद ज्यों घट भरै ,टपकत रीतै तोय ॥ 20<br><br>