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देखना / शिवदयाल

14 bytes added, 16:18, 19 मई 2011
{{KKRachna
|रचनाकार=शिवदयाल
|संग्रह= }}{{KKCatKavita‎}}<poemPoem
देखो ऐसे
 
कि वह सबका देखना हो
 
अलग देखना
 
अलग तरह से देखना
 
अलग-अलग कर देता है
 
सब कुछ
 
वह समय
 सबसे खराब ख़राब रहा 
जबकि तुमने वही देखा
 
जो तुमने देखना चाहा
 
क्योंकि तुम्हारा देखना
 
सबका देखना नहीं था
 
और सबका भोगना
 
तुम्हारा भोगना नहीं...
 
जिओ ऐसे
 
कि वह सबका जीना हो
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