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देखना / शिवदयाल
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16:18, 19 मई 2011
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|रचनाकार=शिवदयाल
|संग्रह=
}}
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}}<
poem
Poem
>
देखो ऐसे
कि वह सबका देखना हो
अलग देखना
अलग तरह से देखना
अलग-अलग कर देता है
सब कुछ
वह समय
सबसे
खराब
ख़राब
रहा
जबकि तुमने वही देखा
जो तुमने देखना चाहा
क्योंकि तुम्हारा देखना
सबका देखना नहीं था
और सबका भोगना
तुम्हारा भोगना नहीं...
जिओ ऐसे
कि वह सबका जीना हो
</poem>
अनिल जनविजय
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