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"फिर उसी राहगुज़र पर शायद / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=अहमद फ़राज़ | |रचनाकार=अहमद फ़राज़ | ||
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08:03, 18 अगस्त 2011 का अवतरण
फिर उसी रहगुज़र पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद
जान पहचान से ही क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद
जिन के हम मुन्तज़िर<ref>प्रतीक्षारत</ref> रहे उनको
मिल गये और हमसफ़र शायद
अजनबीयत की धुंध छंट जाए
चमक उठे तेरी नज़र शायद
जिंदगी भर लहू रुलाएगी
यादे -याराने-बेख़बर<ref> भूले बिसरे दोस्तों की यादें</ref> शायद
जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं "फ़राज़"
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद
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