भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बुत हो गया फिर / नंदकिशोर आचार्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('पत्थर क्या नींद से भी ज्यादा पारदर्शी होता है कि और ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
पत्थर क्या नींद से भी
 
ज्यादा पारदर्शी होता है
 
कि और भी साफ दिख जाता है
 
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
पंक्ति 9: पंक्ति 6:
 
{{KKCatKavita‎}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
<poem>
 
<poem>
 
+
पत्थर क्या नींद से भी
 +
ज्यादा पारदर्शी होता है
 +
कि और भी साफ दिख जाता है
 
उस में भी अपना सपना
 
उस में भी अपना सपना
 
तुम जिसे उकेरने लगते हो-
 
तुम जिसे उकेरने लगते हो-

15:50, 1 दिसम्बर 2011 का अवतरण

पत्थर क्या नींद से भी
ज्यादा पारदर्शी होता है
कि और भी साफ दिख जाता है
उस में भी अपना सपना
तुम जिसे उकेरने लगते हो-
शिल्पी जो ठहरे !

पर क्या होता है उन टुकड़ों का
जिन्हें तुम अपने उकेरने में
पत्थर से उतार देते हो ?
और उस मूरत का जो-जैसी भी हो
तुम्हारी ही पहचान होती है
पत्थर की नहीं ?

उन में क्या सिसकता नहीं रहता होगा
पत्थर का कोई
क्षत-विक्षत सपना अपना ?
हाँ, पत्थर तो उपकरण ठहरा !
उस का अपना क्या ?
सपना क्या ?

तो क्या वे
जिन का अपना नहीं होता कुछ
उपकरण हो जाते हैं
मूरत करने को किसी और का सपना !

(1976)