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"बदन का नील / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर

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दर्द मेरे ज़िस्म पर जब ठोकता है कील
 
दर्द मेरे ज़िस्म पर जब ठोकता है कील
कौन है जो टाँग जाता है वहा~म कँदील
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कौन है जो टाँग जाता है वहाँ कँदील
  
 
दीखती है नहीं आगत देह
 
दीखती है नहीं आगत देह

20:17, 14 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

दर्द मेरे ज़िस्म पर जब ठोकता है कील
कौन है जो टाँग जाता है वहाँ कँदील

दीखती है नहीं आगत देह
और उगता भी नहीं
कँदील का संदेह
जागती जो रोशनी की झील
उसको नमन करता हूँ

झील में परछाइयाँ
ऊँचे घरों की झूलती हैं
तुम्हें क्या मालूम
कितना टीसती हैं, हूलती हैं,
पाँव जो आगे बढ़ाता है
बदन का नील
उसको नमन करता हूँ