भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"क़तआत / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatGhazal‎}}‎
 
{{KKCatGhazal‎}}‎
 
<poem>
 
<poem>
रूठना मुझसे मगर ख़ुद को सज़ा मत देना
+
अब्र बेताब होके चीख़ पड़ा
जुल्फ़ रूख़सार से खेले तो हटा मत देना
+
बर्क़ अँगड़ाई लेके जाग उठी
 +
क़तरा-क़तरा जिगर से खूँ टपका
 +
रात तनहाई लेके जाग उठी
  
मेरे इस जुर्म की क़िश्तों में सज़ा मत देना
 
बेवफ़ाई का सिला यार वफ़ा मत देना
 
  
कौन आयेगा दहकते हुए शोलों के परे
 
थक के सो जाऊँ तो ऐ ख़्वाब जगा मत देना
 
  
सारी दुनिया को जला देगा तिरा आग का खेल
 
भड़के जज़्बात को आँचल की हवा मत देना
 
  
ख़ून हो जायें न क़िस्मत की लकीरें तेरी
 
मैले हाथों को कभी रंगे-हिना मत देना
 
  
ओछी पलकों पे हसीं ख़्वाब सजाने वाले
+
ख़ूब हरियाये हैं चने के खेत
मेरी आँखों से मेरी नींद उड़ा मत देना
+
बेरियाँ फल रही हैं आ जाओ
 
+
फुरसतों के भी कुछ तक़ाज़े हैं
सोच लेना कोई तावील1 मुनासिब लेकिन
+
छुट्टियाँ चल रही हैं आ जाओ
इस हथेली से मिरा नाम मिटा मत देना
+
 
</poem>
 
</poem>
 
{{KKMeaning}}
 
{{KKMeaning}}

17:54, 10 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

अब्र बेताब होके चीख़ पड़ा
बर्क़ अँगड़ाई लेके जाग उठी
क़तरा-क़तरा जिगर से खूँ टपका
रात तनहाई लेके जाग उठी





ख़ूब हरियाये हैं चने के खेत
बेरियाँ फल रही हैं आ जाओ
फुरसतों के भी कुछ तक़ाज़े हैं
छुट्टियाँ चल रही हैं आ जाओ

शब्दार्थ
<references/>