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"उम्र के साथ / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर
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उम्र के साथ | उम्र के साथ | ||
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बहुत से लोग | बहुत से लोग | ||
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बदलते चले जाते हैं | बदलते चले जाते हैं | ||
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तलवारों में | तलवारों में | ||
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एक दिन अचानक | एक दिन अचानक | ||
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उन्हें लगता है | उन्हें लगता है | ||
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कि वे तमाम हिस्से | कि वे तमाम हिस्से | ||
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जहां वे रहते हैं | जहां वे रहते हैं | ||
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म्यानों में बदलते जा रहे हैं | म्यानों में बदलते जा रहे हैं | ||
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फिर | फिर | ||
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किसी और की आहट | किसी और की आहट | ||
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वहां | वहां | ||
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असह्य होने लगती है | असह्य होने लगती है | ||
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उनका सहज भोलापन | उनका सहज भोलापन | ||
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कटता जाता है | कटता जाता है | ||
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उनकी अपनी ही धार के नीचे | उनकी अपनी ही धार के नीचे | ||
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आैर संबंध कटते जाते हैं | आैर संबंध कटते जाते हैं | ||
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भाई | भाई | ||
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नहीं रहता भाई | नहीं रहता भाई | ||
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गोतिया हो जाता है | गोतिया हो जाता है | ||
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मां, मां नहीं रहती | मां, मां नहीं रहती | ||
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चार बीघे जमीन हो जाती है | चार बीघे जमीन हो जाती है | ||
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पत्नी बदल जाती है | पत्नी बदल जाती है | ||
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प्याज, हींग-हल्दी की गंध में | प्याज, हींग-हल्दी की गंध में | ||
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दोस्त नहीं रहता दोस्त | दोस्त नहीं रहता दोस्त | ||
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अतिथि हो जाता है | अतिथि हो जाता है | ||
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तब | तब | ||
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ये तलवारें | ये तलवारें | ||
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घरों परिवारों गांवों को | घरों परिवारों गांवों को | ||
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काटती चली जाती हैं | काटती चली जाती हैं | ||
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मुल्क की सरहदों तक | मुल्क की सरहदों तक | ||
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और सबको समझाती हैं | और सबको समझाती हैं | ||
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कि तलवारें नहीं हैं वे | कि तलवारें नहीं हैं वे | ||
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राष्ट्र हैं | राष्ट्र हैं | ||
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और राष्ट्रहित से बढकर | और राष्ट्रहित से बढकर | ||
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कोई चीज नहीं | कोई चीज नहीं | ||
− | |||
न गांव | न गांव | ||
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न परिवार | न परिवार | ||
− | |||
न घर। | न घर। | ||
13:37, 30 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण
उम्र के साथ
बहुत से लोग
बदलते चले जाते हैं
तलवारों में
एक दिन अचानक
उन्हें लगता है
कि वे तमाम हिस्से
जहां वे रहते हैं
म्यानों में बदलते जा रहे हैं
फिर
किसी और की आहट
वहां
असह्य होने लगती है
उनका सहज भोलापन
कटता जाता है
उनकी अपनी ही धार के नीचे
आैर संबंध कटते जाते हैं
भाई
नहीं रहता भाई
गोतिया हो जाता है
मां, मां नहीं रहती
चार बीघे जमीन हो जाती है
पत्नी बदल जाती है
प्याज, हींग-हल्दी की गंध में
दोस्त नहीं रहता दोस्त
अतिथि हो जाता है
तब
ये तलवारें
घरों परिवारों गांवों को
काटती चली जाती हैं
मुल्क की सरहदों तक
और सबको समझाती हैं
कि तलवारें नहीं हैं वे
राष्ट्र हैं
और राष्ट्रहित से बढकर
कोई चीज नहीं
न गांव
न परिवार
न घर।
1996