उम्र के साथ
बहुत से लोग
बदलते चले जाते हैं
तलवारों में
एक दिन अचानक
उन्हें लगता है
कि वे तमाम हिस्से
जहां वे रहते हैं
म्यानों में बदलते जा रहे हैं
फिर
किसी और की आहट
वहां
असह्य होने लगती है
उनका सहज भोलापन
कटता जाता है
उनकी अपनी ही धार के नीचे
आैर संबंध कटते जाते हैं
भाई
नहीं रहता भाई
गोतिया हो जाता है
मां, मां नहीं रहती
चार बीघे जमीन हो जाती है
पत्नी बदल जाती है
प्याज, हींग-हल्दी की गंध में
दोस्त नहीं रहता दोस्त
अतिथि हो जाता है
तब
ये तलवारें
घरों परिवारों गांवों को
काटती चली जाती हैं
मुल्क की सरहदों तक
और सबको समझाती हैं
कि तलवारें नहीं हैं वे
राष्ट्र हैं
और राष्ट्रहित से बढकर
कोई चीज नहीं
न गांव
न परिवार
न घर।
1996