भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रोके गिरना सरग टिटहरी / रामकिशोर दाहिया" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामकिशोर दाहिया }} {{KKCatNavgeet}} <poem> {{KKGlobal}} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
{{KKCatNavgeet}}
 
{{KKCatNavgeet}}
 
<poem>
 
<poem>
कहने को सब धूप कहे रे
 
सहने को सब रूप सहे रे
 
मन की बाढ़ न बाहर निकले
 
भीतर-भीतर कूप बहे रे
 
  
प्रातः सार मवेशी ढीले
+
रेतीले टीले पर
पूरा कांँदो-कीच कढ़ीले
+
दुनिया
क्वाँर कसाई एक न मानें
+
सहती दिन की
घर के बाहर पीठ उचीले
+
तेज दुपहरी
परछी के पिछवाड़े कण्डे
+
ऊपर पांँव
पाथे ममता आंँख तरेरे.
+
उठाकर सोती
 +
रोके गिरना सरग टिटहरी.
  
चूल्हा-चौंका बर्तन भाँड़े
+
कोटर से बाहर
चारा-पानी आँत निकारे
+
आ चूजे
अदहन-१ देते हुई दुपहरी
+
नभ को तौल
दाल चुरी न आटा माड़े
+
तलाशें पखने
हलधर लौटा खेत जोतकर
+
नन्हीं चोंचों से
बारी -जैसे  बैल उरेरे-२.
+
इक दूजे
 +
कहते आपस
 +
का दुख अपने
 +
कस ली अपनी
 +
कमर अभी से
 +
लौटाने को याद सुनहरी.
  
खेत काटकर लाँक३ सहेजे
+
संघर्षों में जुटी
उरदा, तिली, धान के बोझे
+
हुई मांँ
पीली पड़ी जुन्हाई मुँह की
+
चुग्गे गढ़कर
अंँखियों से संदेश भेजे
+
ले आ देती
तुर्रेदार हवा सीने पर
+
गील गला
ठण्डे क्यों अंगार बिखेरे?
+
करने को भरती
 +
मुंँह में
 +
जलती धू-धू रेती
 +
भूख आफतों से
 +
जूझी तो
 +
झांँके हड्डी देह इकहरी.
 +
 
 +
आहट से
 +
संवेदित होकर
 +
टिटिर टियूँ ने
 +
आवाज लगाई
 +
कोमल पंजों को
 +
आ करके
 +
नई सुरक्षा
 +
कवच ओढ़ाई
 +
अपने प्राण
 +
बचा ले जाती
 +
घेरे बाइस
 +
लोग गिलहरी.
 +
     
 
            
 
            
टिप्पणी :
 
१.अदहन- बर्तन में चूल्हे पर टांँगा गया भोजन पकाने का पानी।
 
२.उरेरे- बैल का शारीरिक क्षति पर ध्यान न देते हुए बाड़ को तीब्रता से दूर फेंकना या पलटना। ३.लांँक-पौधे सहित काटी गई फसल, जिसमें अन्न के दाने होते हैं।
 
   
 
   
 
           
 
 
-रामकिशोर दाहिया
 
-रामकिशोर दाहिया
  
 
</poem>
 
</poem>

18:14, 6 मई 2021 का अवतरण


{{KKRachna
|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
}}





रेतीले टीले पर

दुनिया

सहती दिन की

तेज दुपहरी

ऊपर पांँव

उठाकर सोती

रोके गिरना सरग टिटहरी.



कोटर से बाहर

आ चूजे

नभ को तौल

तलाशें पखने

नन्हीं चोंचों से

इक दूजे

कहते आपस

का दुख अपने

कस ली अपनी

कमर अभी से

लौटाने को याद सुनहरी.



संघर्षों में जुटी

हुई मांँ

चुग्गे गढ़कर

ले आ देती

गील गला

करने को भरती

मुंँह में

जलती धू-धू रेती

भूख आफतों से

जूझी तो

झांँके हड्डी देह इकहरी.



आहट से

संवेदित होकर

टिटिर टियूँ ने

आवाज लगाई

कोमल पंजों को

आ करके

नई सुरक्षा

कवच ओढ़ाई

अपने प्राण

बचा ले जाती

घेरे बाइस

लोग गिलहरी.

       

           

-रामकिशोर दाहिया