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02:49, 8 फ़रवरी 2009 का अवतरण
कभी नहीं होता, पर होने की कगार पर सदा टंगा-सा,
मेरा सिर-मत्यु का मुखौटा, लाया जाता है प्रकाश में।
छाया पड़ती आर-पार गाल के और मैं, होंठ हिलाता हूँ छूने को;
लेकिन मेरी पहुँच महज छूने तक ही सीमित रह जाती,
भले आत्मा कितना ही बाहर निकाल कर गरदन झाँके।
निरख रहीं हों वे गुलाब, सोना, आँखें या दृश्य भला-सा
ये मेरी इंद्रियाँ आँकती क्रिया चाहने भर की;
होने की कामना दृश्य, सोना, गुलाब, दूसरा व्यक्ति वह।
“ करता हूँ मैं प्यार ”- एक बस इसी तथ्य पर
दावा मेरा पूर्णकाम बनने का टिका हुआ है।
अंग्रेज़ी से अनुवाद : रमेशचंद्र शाह