भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अनहोना / स्तेफान स्पेन्डर
Kavita Kosh से
कभी नहीं होता,
पर होने की कगार पर सदा टँगा-सा,
मेरा सिर — मत्यु का मुखौटा,
लाया जाता है प्रकाश में ।
छाया पड़ती आर-पार गाल के और मैं,
होंठ हिलाता हूँ छूने को;
लेकिन मेरी पहुँच महज छूने तक ही सीमित रह जाती,
भले आत्मा
कितना ही बाहर निकाल कर गरदन झाँके ।
निरख रहीं हों वे गुलाब, सोना, आँखें या दृश्य भला-सा
ये मेरी इन्द्रियाँ आँकती क्रिया चाहने भर की;
होने की कामना दृश्य, सोना, गुलाब, दूसरा व्यक्ति वह ।
“करता हूँ मैं प्यार” — एक, बस, इसी तथ्य पर
दावा मेरा पूर्णकाम बनने का
टिका हुआ है ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : रमेशचन्द्र शाह