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जिस सम्त नज़र जाये, कयामत के हैं सामाँ।
कब होगी हुवेदा<ref>उत्पन्न</ref> उफ़ुक़े-ख़ुम से नई सुब्‍ह
शीशे में छलकता तो है मुस्तक़बिले इन्साँ।
इस बादा-ए-सरजोश से उठती हैं जो मौजें
हैं आलमे-असरार की वो सिलसिला-जुंबाँ।
ये जिस्म है कि कृष्न की बंशी की कोई टेर
बल खाया हुआ रूप है या शोला-ए-पेचाँ।
सद मेहरो-क़मर<ref>चाँद-सूरज</ref>, इसमें झलक जाते हैं साक़ी!
इक बूँद मये-नाब में सद आलमें इमकाँ।
मय जोशी-ए-सहबा में धड़कता है दिले-जाम
साग़र में हैं मौजे कि फड़कती है रगे-जाँ।
साक़ी तेरी आमद की बशारत है शबे-माह
निकला वो नसीबों को जगाता शबे-ताबाँ।
जामे-मये रंगी है कि ग़ुलहाये-शुगुफ़्तामयख़ाने की ये रात है जो सुब्‍हे-गुलिस्ताँ। पूछे न हमें तू ही तो हम लोग कहाँ जायेंऐ साक़ी-ए-दौराँ अरे ऐ साक़ी-ए-दौराँ। साक़ी ये तेरा क़ौल<ref>वचन</ref> हमें याद रहेगाआरास्ता जिस वक़्त हुई महफ़िले-रिंदाँ। बस फ़ुरसते-यक-लमहा है रिन्दों कि है उतराइस लम्हा अबद का तहे-नुह-गुम्बदे-दौराँ। बरहक़<ref>सत्य</ref> है ’फ़िराक़’ अहले-तरीक़त का ये कहनाये मये-ग़मे-दुनिया को बना दे गमें-जानाँ।
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--अमित ०३:२३, ९ अक्तूबर २००९ (UTC)
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