भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"देना-पाना / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय}}
+
{{KKGlobal}}
 
+
{{KKRachna
             
+
|रचनाकार=अज्ञेय
दो?हाँ, दो<br>
+
}}
बड़ा सुख है देना!<br>
+
{{KKCatKavita}}
देने में<br>
+
<poem>
अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-<br>
+
दो?हाँ, दो
पर गिरेगा नहीं,<br>
+
बड़ा सुख है देना!
और फिर बोध यह लायेगा<br>
+
देने में
कि देना नहीं है नि:स्व होना<br>
+
अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-
और वह बोध,<br>
+
पर गिरेगा नहीं,
तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा।<br>
+
और फिर बोध यह लायेगा
लो? हाँ लो!<br>
+
कि देना नहीं है नि:स्व होना
सौभाग्य है पाना,<br>
+
और वह बोध,
उसकी आँधी से रोम-रोम<br>
+
तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा।
एक नई सिहरन से भर जायेगा।<br>
+
लो? हाँ लो!
पाने में जीना भी कुछ खोना,<br>
+
सौभाग्य है पाना,
यों नि:स्व होना तो नहीं,<br>
+
उसकी आँधी से रोम-रोम
पर है कहीं ऊना हो जाना,<br>
+
एक नई सिहरन से भर जायेगा।
पाना अस्मिता का टूट जाना,<br>
+
पाने में जीना भी कुछ खोना,
वह उन्मोचन-यह सोच लो,<br>
+
यों नि:स्व होना तो नहीं,
वह क्या झिल पायेगा?<br><br>
+
पर है कहीं ऊना हो जाना,
 +
पाना अस्मिता का टूट जाना,
 +
वह उन्मोचन-यह सोच लो,
 +
वह क्या झिल पायेगा?
 +
</poem>

23:44, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

दो?हाँ, दो
बड़ा सुख है देना!
देने में
अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-
पर गिरेगा नहीं,
और फिर बोध यह लायेगा
कि देना नहीं है नि:स्व होना
और वह बोध,
तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा।
लो? हाँ लो!
सौभाग्य है पाना,
उसकी आँधी से रोम-रोम
एक नई सिहरन से भर जायेगा।
पाने में जीना भी कुछ खोना,
यों नि:स्व होना तो नहीं,
पर है कहीं ऊना हो जाना,
पाना अस्मिता का टूट जाना,
वह उन्मोचन-यह सोच लो,
वह क्या झिल पायेगा?