भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देना-पाना / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दो?हाँ, दो
बड़ा सुख है देना!
देने में
अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-
पर गिरेगा नहीं,
और फिर बोध यह लायेगा
कि देना नहीं है नि:स्व होना
और वह बोध,
तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा।
लो? हाँ लो!
सौभाग्य है पाना,
उसकी आँधी से रोम-रोम
एक नई सिहरन से भर जायेगा।
पाने में जीना भी कुछ खोना,
यों नि:स्व होना तो नहीं,
पर है कहीं ऊना हो जाना,
पाना अस्मिता का टूट जाना,
वह उन्मोचन-यह सोच लो,
वह क्या झिल पायेगा?